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राजनीतिक दर्शन

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राजनीतिक दर्शनशास्त्र या राजनीतिक सिद्धांत, सरकार का दार्शनिक अध्ययन है, जो सार्वजनिक(सरकारी) कर्तुओं और संस्थानों की प्रकृति, दायरे और वैधता तथा उनके बीच संबंधों के बारे में प्रश्नों को संबोधित करता है। यह मूल्यमिमांसा की वह शाखा है जो मानव समाजिक संस्थापनाओं, समाज में रह रहे व्यक्ति की प्रकृति,उसका समाज के साथ सम्बन्ध,तथा उस समाज को सर्वोत्तम रुप से कैसे व्यवस्थित करें, उसका अध्य्यन करती है।[1] इसके अन्तर्गत राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, सम्पत्ति, अधिकार, कानून(सन्नियम) तथा प्रधिकरण द्वारा कानूनों का प्रवर्तन,आदि विषयों से सम्बन्धित प्रश्नों पर चिन्तन किया जाता है: ये क्या हैं, उनकी आवश्यकता क्यों हैं, सरकार को 'वैध' क्या बनाती है, किन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है, विधि क्या है, किसी वैध सरकार के प्रति नागरिकों के क्या कर्त्तव्य हैं, कब किसी सरकार को उकाड़ फेंकना वैध है, इत्यादि।

राजनीतिक दर्शनशास्त्र
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थॉमस हॉब्स की पुस्तक 'लेवियाथन' राजनीतिक दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है।
विद्या विवरण
अधिवर्गदर्शनशास्त्र, मूल्यमीमांसा
विषयवस्तुसामूहिक जीवन को कैसे व्यवस्थित किया जाए - हमारी राजनीतिक-समाजिक संस्थाएं और,आर्थिक प्रणाली और पारिवारिक जीवन की नीति
शाखाएं व उपवर्गराजनीतिक यथार्थवाद, राजनीतिक आदर्शवाद, राजतंत्रवाद, उदारवाद, रूढ़िवाद, साम्यवाद, समाजवाद, स्वतंत्रतावाद, अराजकतावाद, नारीवाद
प्रमुख विद्वान्प्लेटो, अरस्तू, सिसरो, चाणक्य, थॉमस एक्विनास , मैकियावेली, मॉन्टेस्क्यू, रूसो, थॉमस हॉब्स, जॉन लॉक,जॉन स्टुअर्ट मिल, हेगल, मार्क्स, एड्मंड बर्के, हन्ना आर्डेन्ट, जॉन रॉल्स, रॉबर्ट नोज़िक, इसाय बर्लिन
इतिहासराजनीतिक दर्शन का इतिहास
प्रमुख विचार व अवधारणाएंविधि, संविधान, सरकार के प्रकार, राजनीतिक समानता, मार्क्सवाद, संपत्ति, द्वंदात्मक भौतिकवाद, स्वतंत्रता की दो अवधारणाएं, समाजिक संविदा

प्राचीन काल में सारा व्यवस्थित चिंतन दर्शन के अंतर्गत होता था, अतः सारी विद्याएं दर्शन के विचार क्षेत्र में आती थी। राजनीति सिद्धान्त के अन्तर्गत राजनीति के भिन्न भिन्न पक्षों का अध्ययन किया जाता हैं। राजनीति का संबंध मनुष्यों के सार्वजनिक जीवन से हैं। परम्परागत अध्ययन में चिन्तन मूलक पद्धति की प्रधानता थी जिसमें सभी तत्वों का निरीक्षण तो नहीं किया जाता हैं, परन्तु तर्क शक्ति के आधार पर उसके सारे संभावित पक्षों, परस्पर संबंधों प्रभावों और परिणामों पर विचार किया जाता हैं।

'सिद्धान्त' का अर्थ है तर्कपूर्ण ढंग से संचित और विश्लेषित ज्ञान का समूह। राजनीति का सरोकार बहुत-सी चीजों से है, जिनमें व्यक्तियों और समूहों तथा वर्गों और राज्य के बीच के संबंध और न्यायपालिका, नौकरशाही आदि जैसी राज्य की संस्थाएँ शामिल हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त की परिभाषा करते हुए डेविड वेल्ड कहते हैं-

राजनीतिक जीवन के बारे में ऐसी अवधारणाओं और सामान्यीकरणों का एक ताना-बाना है ‘जिनका संबंध सरकार, राज्य और समाज के स्वरूप, प्रयोजन और मुख्य विशेषताओं से तथा मानव प्राणियों की राजनीतिक क्षमताओं से संबंधित विचारों, मान्यताओं एवं अभिकथनों से है।

एंड्रू हैकर की परिभाषा के अनुसार-

राजनीतिक सिद्धान्त एक ओर अच्छे राज्य और अच्छे समाज के सिद्धान्तों की तटस्थ तलाश और दूसरी ओर राजनीतिक तथा सामाजिक यथार्थ की तटस्थ खोज का संयोग है।

गुल्ड और कोल्ब ने राजनीतिक सिद्धान्त की एक व्यापक परिभाषा करते हुए कहा है कि राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीति विज्ञान का एक उप-क्षेत्र है, जिसमें निम्नलिखित का समावेश हैः

  • राजनीतिक दर्शन - राजनीति का एक नैतिक सिद्धान्त और राजनीतिक विचारों का एक ऐतिहासिक अध्ययन।
  • एक वैज्ञानिक मापदंड।
  • राजनीतिक विचारों का भाषाई विश्लेषण।
  • राजनीतिक व्यवहार के बारे में सामान्यीकरणों की खोज और उनका व्यवस्थित विकास।

हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बुनियादी तौर पर राजनीतिक सिद्धान्त का संबंध दार्शनिक तथा आनुभविक दोनों दृष्टियों से राज्य की संघटना से है। राज्य तथा राजनीतिक संस्थाओं के बारे में स्पष्टीकरण देने, उनका वर्णन करने और उनके संबंध में श्रेयस्कर सुझाव देने की कोशिश की जाती है। निःसन्देह, नैतिक दार्शनिक प्रयोजन का अध्ययन तो उसमें अंतर्निहित रहता ही है। चिंतक वाइन्स्टाइन ने गागर में सागर भरते हुए कहा था कि राजनीतिक सिद्धान्त मुख्यतः एक ऐसी संक्रिया है जिसमें प्रश्न पूछे जाते हैं, उन प्रश्नों के उत्तरों का विकास किया जाता है और मानव प्राणियों के सार्वजनिक जीवन के संबंध में काल्पनिक परिप्रेक्ष्यों की रचना की जाती है। जो प्रश्न पूछे जाते हैं वे कुछ इस तरह के होते हैंः

राज्य का स्वरूप और प्रयोजन क्या है?
राजनीतिक संगठन के साध्यों, लक्ष्यों और पद्धतियों के बारे में हम कैसे निर्णय करें?
राज्य और व्यक्ति के बीच संबंध क्या है और क्या होना चाहिए?

इतिहास के पूरे दौर में राजनीतिक सिद्धान्त इन प्रश्नों के उत्तर देता रहा है। इसे इसलिए महत्त्वपूर्ण माना गया है क्योंकि मनुष्य का भाग्य इस बात पर निर्भर होता है कि शासकों और शासितों को किस प्रकार की प्रणाली प्राप्त हो पाती है और जो प्रणाली प्राप्त होती है उसके फलस्वरूप क्या सामान्य भलाई के लिए संयुक्त कार्यवाही की जाती है।

राजनीतिक सिद्धान्त की आधारभूत विशेषताएँ

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  • (1) कोई राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः किसी एक व्यक्ति की सृष्टि होता है, जो उसके नैतिक और बौद्धिक रुख पर आधारित होता है और जब वह अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कर रहा होता है तब वह सामान्यतः मानव जाति के राजनीतिक जीवन की घटनाओं, संघटनाओं और रहस्यों की व्याख्या करने की कोशिश कर रहा होता है। उस सिद्धान्त को सच माना या न माना जा सकता है, लेकिन उसे एक सिद्धान्त के रूप में हमेशा मान्य किया जा सकता है। आमतौर पर हम देखते हैं कि किसी चिंतक का राजनीतिक सिद्धान्त किसी-किसी मानक कृति में प्रस्तुत किया जाता है, जैसे अफलातून ने रिपब्लिकमें या रॉल ने ए थिओरी ऑफ़ जस्टिसमें प्रस्तुत किया।
  • (2) राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः मानव जाति, उसके द्वारा संगठित समाजों और इतिहास तथा ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न करता है। वह विभेदों को मिटाने के तरीके भी सुझाता है और कभी-कभी क्रांतियों की हिमायत करता है। बहुधा भविष्य के बारे में पूर्वानुमान भी दिए जाते हैं।
  • (३) राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः विद्या की किसी-न-किसी शाखा पर आधारित होता है और यद्यपि अध्ययन का विषय वही रहता है, तथापि सिद्धान्तकार कोई दार्शनिक, अर्थशास्त्री, धर्मतत्वज्ञ या समाजशास्त्री आदि हो सकता है।
  • (४) इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त केवल व्याख्याएँ एवं पूर्वानुमान ही नहीं प्रस्तुत करता है बल्कि कभी-कभी वह ऐतिहासिक घटनाओं को प्रभावित और उनमें भागीदारी भी करता है, खास कर तब जब वह किसी खास ढंग की राजनीतिक र्यवाही प्रस्तावित करता है और जिस ढंग की कार्यवाई वह सुझाता है उसे व्यापक स्वीकृति प्राप्त होती है। महान सकारात्मक उदारवादी चिंतक हेरॉल्ड लास्की ने कहा था कि राजनीतिक सिद्धान्तकार का काम केवल वर्णनकरना नहीं बल्कि जो होना चाहिए उसका सुझाव देना भी है।
  • (५) राजनीतिक सिद्धान्त बहुधा पूरी विचारधारा का आधार भी होता है। उदारवादी सिद्धान्त उदारवाद का आधार बन गए और मार्क्स का सिद्धान्त मार्क्स की छाप की समाजवादी विचारधारा का किसी चिंतक द्वारा प्रस्तावित कोई राजनीतिक सिद्धान्त सामान्यतः हमेशा उस चिंतक की राजनीतिक विचारधारा को प्रतिबिंबित कर रहा होता है। यही कारण है कि जब विचारधाराओं के बीच विभेद होते हैं तो उसके फलस्वरूप विचारधाराओं में अंतर्निहित सिद्धान्तों के बारे में बहस चलती है।

राजनीतिक सिद्धान्त के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न

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राजनीतिक सिद्धान्त में जिन प्रश्नों का महत्त्व रहा है वे समय के साथ-साथ बदलते रहे हैं। क्लासिकी और प्रारंभिक राजनीतिक सिद्धान्त का सरोकार नैतिक दृष्टि से दोष-रहित राजनीतिक व्यवस्था की तलाश से था और उसने विशेष ध्यान राज्य के स्वरूप और प्रयोजन, राजनीतिक सत्ता के उपयोग के आधार और राजनीतिक अवज्ञा की समस्या से प्रश्नों पर दिया। आधुनिक राष्ट्र राज्यों के उदय और आर्थिक संरचना में हुए परिवर्तनों तथा औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप नई प्राथमिकताएँ सामने आईं और ध्यान का केंद्र व्यक्तिवाद तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज एवं राज्य के साथ उसका संबंध बन गया। अधिकार, कर्त्तव्य, स्वतंत्रता, समानता और संपत्ति जैसे प्रश्न अधिक महत्त्वपूर्ण हो गए। धीरे-धीरे एक अवधारणा के साथ दूसरो के संबंध की व्याख्या जैसे स्वतंत्रता और समानता, न्याय और स्वतंत्रता, या समानता और संपत्ति के बीच के संबंध की व्याख्या : भी महत्त्वपूर्ण हो गई। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक नए प्रकार के आनुभविक राजनीतिक सिद्धान्त का उदय हुआ। इसमें मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन करने और उसके आधार पर सैद्धांतिक निष्कर्ष निकालने की कोशिश की गई। मानव-व्यवहारों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने अध्ययन के लिए नए प्रश्नों को सामने रखा। वे बहुधा विधा की अन्य शाखाओं से ऐसे प्रश्न उधार लेते थे। इनमें से कुछ प्रश्न इस प्रकार हैं-

राजनीतिक संस्कृति और वैधता, राजनीतिक प्रणाली, अभिजन समूह, राजनीतिक दल आदि।

विगत कुछ दशकों से कई और भी मसले उभरे हैं - जैसे पहचान, लिंग, पर्यावरणवाद, पारिस्थितिकी, समुदाय आदि। साथ ही मूल्य-आधारित राजनीतिक सिद्धान्त का भी पुनरोदय हुआ है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय के प्रश्नों पर नए ढंग से जोर दिया गया है।

राजनीतिक सिद्धान्त का अन्य विषयों से संबंध

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राजनीतिक सिद्धान्त और राजनीतिक दर्शन

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दर्शन में सत्य और ज्ञान की खोज में किसी भी विषय पर किए गए समस्त चिंतन का समावेश है। जब वह खोज राजनीतिक विषयों पर होती है तब उसे हम राजनीतिक दर्शन कहते हैं। इसलिए जरूरी नहीं कि उसमें कोई सिद्धान्त प्रस्तावित किया जाए और राजनीतिक दर्शन तथा राजनीतिक सिद्धान्त में यही अंतर है। इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक दर्शन का हिस्सा है, लेकिन राजनीतिक दर्शन अधिकांशतः काफी अधिक व्यापक होता है और आवश्यक नहीं कि उसमें कोई सिद्धान्त शामिल हो।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दर्शन राज्य, सरकार, राजनीति, स्वतंत्रता, न्याय, संपत्ति, अधिकारों, कानून और किसी भी प्राधिकरण द्वारा कानूनी संहिता को लागू कराने आदि से संबंधित प्रश्नों अर्थात् वे क्या हैं? उनकी जरूरत अगर है तो क्यों है? कौन-सी बातें किसी सरकार को वैध बनाती हैं, उसे किन अधिकारों और किन स्वतंत्रताओं की रक्षा करनी चाहिए और उसे क्यों और कौन-सा रूप ग्रहण करना चाहिए और कानून क्यों है और क्या है और वैध सरकार के प्रति नागरिकों के कर्तव्य यदि हैं तो क्या हैं और कब किसी सरकार को अपदस्थ कर देना वैध होगा या नहीं होगा आदि प्रश्नों का अध्ययन है। ‘राजनीतिक दर्शन’ से बहुधा हमारा तात्पर्य राजनीति के प्रति सामान्य दृष्टिकोण या उसके संबंध में विशिष्ट नैतिकता अथवा विश्वास या रुख से होता है और यह सब जरूरी तौर पर दर्शन के संपूर्ण तकनीकी विषय के अंतर्गत नहीं आता है।

राजनीतिक दर्शन का सरोकार अक्सर समकालीन प्रश्नों से नहीं, बल्कि मनुष्य के राजनीतिक जीवन के अधिक सार्वभौम प्रश्नों से होता है। लेकिन राजनीतिक सिद्धान्तकार की दृष्टि मुख्य रूप से समकालीन राजनीतिक जीवन पर होती है और यद्यपि राज्य के स्वरूप और प्रयोजन और इसी प्रकार के सामान्य प्रश्नों की व्याख्या करने में वह दिलचस्पी लेता है तथापि वह राजनीतिक व्यवहार, राज्य तथा नागरिकों के बीच के वास्तविक संबंध और समाज में शक्ति की भूमिका के यथार्थों का वर्णन करने और उन्हें समझने की भी कोशिश कर रहा होता है। राजनीति विज्ञान का अध्ययन करते हुए हमें यह महसूस होता है कि राजनीतिक सिद्धान्त की अनुपूर्ति हमें राजनीतिक दर्शन के अध्ययन से करनी चाहिए अन्यथा वह बंजर और अप्रासंगिक प्रतीत होते हैं।

राजनीतिक सिद्धान्त तथा राजनीतिक चिन्तन

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राजनीतिक सिद्धान्त को कभी-कभी राजनीतिक चिंतन के पर्याय के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह समझ लेना जरूरी है कि उनका अर्थ आवश्यक रूप से एक ही नहीं होता। राजनीतिक चिंतन एक सामान्यीकृत मुहावरा है, जिसमें राज्य तथा राज्य से संबंधित प्रश्नों पर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह या समुदाय के सभी चिंतनों, सिद्धान्तों और मूल्यों का समावेश होता है। जब कोई व्यक्ति चाहे वह प्रोफेसर, पत्रकार, लेखक, कवि, उपन्यासकार आदि जो भी हो या बेशक वह राजनीतिज्ञ ही हो ऐसे विचार व्यक्त करता है जिनका हमारे जीवन से सरोकार है और जो विचार राज्य और शासन तथा इनसे संबंधित प्रश्नों के बारे में हैं तब वह वस्तुतः राजनीतिक चिंतन कर रहा होता है। उसके विचारों में सिद्धान्त का समावेश हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। उन विचारों में तब कोई सिद्धान्त निहित नहीं होगा जब उन में राज्य और शासन आदि के राजनीतिक नियम से संबंधित ऐतिहासिक तथा राजनीतिक संघटना की व्याख्या करने के लिए प्रस्तुत की गई कोई व्यवस्थित और तर्कसम्मत प्राक्कल्पना न हो। इस प्रकार राजनीतिक चिंतन हमेशा किसी व्यक्ति या समूह का राजनीति-विषयक सामान्य विचार होता है, जबकि राजनीतिक सिद्धान्त अपने-आप में पूर्ण और अपने बल-बूते खड़ी ऐसी व्याख्या या विचार अथवा सिद्धान्त होता है जिसमें प्रश्नों के उत्तर देने, इतिहास की व्याख्या करने और भविष्य की संभावित घटनाओं के बारे में पूर्वानुमान लगाने का प्रयत्न किया जाता है। बेशक, यह सिद्धान्त हमेशा किसी एक चिंतक व्यक्ति की सृष्टि होता है। बार्कर ने कहा था कि राजनीतिक चिंतन किसी पूरे युग का अंतर्वर्ती दर्शन होता है, लेकिन राजनीतिक सिद्धान्त किसी एक व्यक्ति का चिंतन होता है।

राजनीतिक सिद्धान्त तथा राजनीति विज्ञान

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राजनीति विज्ञान अध्ययन का एक विस्तृत विषय या क्षेत्र है और राजनीतिक सिद्धान्त उसका एक उप -क्षेत्र भर है। राजनीति विज्ञान में ये तमाम बातें शामिल हैं: राजनीतिक चिंतन, राजनीतिक सिद्धान्त, राजनीतिक दर्शन, राजनीतिक विचारधारा, संस्थागत या संरचनागत ढांचा, तुलनात्मक राजनीति, लोक प्रशासन, अंतर्राष्ट्रीय कानून और संगठन आदि। कुछ चिंतकों ने राजनीति विज्ञान के विज्ञान पक्ष पर बल दिया है। उनका कहना है कि जब राजनीति विज्ञान का अध्ययन एक विज्ञान के रूप में वैज्ञानिक पद्धतियों से किया जाता है तब राजनीतिक सिद्धान्त जिस हद तक राजनीतिक दर्शन का हिस्सा है उस हद तक वह राजनीति विज्ञान नहीं माना जा सकता, क्योंकि राजनीति विज्ञान में तो अमूर्त्त और अंतःप्रेरणा से उद्भूत निष्कर्षों या चिंतनों के लिए कोई स्थान नहीं है लेकिन राजनीतिक दर्शन ठीक इन्हीं अयथार्थ पद्धतियों पर भरोसा करके चलता है। राजनीतिक सिद्धान्त न तो शुद्ध चिंतन है, न शुद्ध दर्शन और न शुद्ध विज्ञान।


राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता

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हम मानव गण सामाजिक प्राणियों के रूप में साथ-साथ समाज में रहते हैं, जिसमें हम संसाधनों, रोजगारों और पुरस्कारों में साझेदारी करते हैं। साथ ही हम व्यक्ति भी हैं, जिस हैसियत में हमें कुछ बुनियादी मानवाधिकारों की जरूरत है। इसलिए मेल-जोल तथा खुशहाली को अधिकतम सीमा तक ले जाने के खातिर और व्यक्तिगत आत्म-सिद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ सुलभ कराने के निमित्त राज्य तथा समाज के संगठन की प्रक्रिया महत्त्वपूर्ण हो जाती है। फलतः मानव समाजों की एकता और अखंडता का या समाज की सामूहिक आवश्यकताओं की पूर्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए राजनीतिक सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वह समस्याओं का अध्ययन करने और उस प्रक्रिया में उनका समाधान ढूँढ़ने की कोशिश करता है। राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता राज्य के स्वरूप और प्रयोजन के प्रति, राजनीतिक सत्ता के आधार और सरकार के सबसे श्रेयस्कर रूप के संबंध में और राज्य तथा व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों के संदर्भ में उन दोनों के बीच के संबंधों के बारे में विभिन्न दृष्टिकोणों का विकास करने में निहित होती है। इसके अतिरिक्त, राजनीतिक सिद्धान्त राजनीतिक राज्य की नैतिक गुणवत्ता की परख के लिए नैतिक मापदंड स्थापित करने तथा वैकल्पिक राजनीतिक प्रबंधन और व्यवहार सुझाने का भी प्रयत्न करता है। संक्षेप में कहें तो राजनीतिक सिद्धान्त की प्रासंगिकता निम्नलिखित बातों में निहित हैः

  • राजनीतिक संघटना की व्याख्या और वर्णन करना,
  • किसी समुदाय के लिए श्रेयस्कर राजनीतिक लक्ष्यों और कार्यवाहियों का चुनाव करने में सहायता देना,
  • नैतिकता की परख के लिए आधार प्रस्तुत करने में मदद देना।

यह भी याद रखना चाहिए कि कम से कम वर्तमान काल में राज्य अधिकाधिक परिमाण में गरीबी, भ्रष्टाचार, जनाधिक्य और संजातीय तथा नस्ली तनावों, पर्यावरण प्रदूषण आदि की चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनके अलावा अंतर्राष्ट्रीय विभेदों आदि की समस्या तो है ही। राजनीतिक सिद्धान्त समाज के राजनीतिक जीवन की वर्तमान तथा भावी समस्याओं का अध्ययन करने और उन समस्याओं के समाधान को सुझाने का प्रयत्न करता है। डेविड हेल्डने कहा है कि राजनीतिक सिद्धान्त का कार्य अपनी जटिलताओं के कारण बहुत गुरु-गंभीर है, क्योंकि व्यवस्थित अध्ययन के अभाव में इस बात का खतरा रहता है कि राजनीति अज्ञान और स्वार्थी लोगों के हाथों में अपनी शक्ति की भूख मिटाने का साधन बनकर न रह जाए।

इस प्रकार यदि हमें सामाजार्थिक यथार्थ एवं आदर्शों तथा राजनीतिक दर्शन का ध्यान रखते हुए, राज्य के स्वरूप और प्रयोजन तथा शासन की समस्याओं पर व्यवस्थित ढंग से विचार करना है तो हमें समस्या के सैद्धांतिक अध्ययन का रास्ता अपनाना होगा। इस प्रकार राजनीतिक सिद्धान्त प्रासंगिक है। साथ ही व्यक्तिगत स्तर पर राजनीतिक सिद्धान्त का अध्ययन करने से हमें अपने अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की जानकारी मिलती है और गरीबी, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि सामाजार्थिक यथार्थों और समस्याओं को समझने में सहायता मिलती है। राजनीतिक सिद्धान्त इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं कि विभिन्न राजनीतिक सिद्धान्तों को आधार बना कर ‘आगे बढ़ते हुए वह हमें समाज को बदलने के उपाय और दिशाएँ सुझा सकता है, ताकि आदर्श समाज स्थापित किया जा सके। मार्क्सवादी सिद्धान्त एक ऐसे सिद्धान्त का उदाहरण है जो न केवल दिशा सुझाता है बल्कि समतावादी समाज की स्थापना के लिए क्रांति की हिमायत करने की हद तक जाता है। यदि कोई राजनीतिक सिद्धान्त सही है तो वह आम लोगों तक संप्रेषित किया जा सकता है और तब वह समाज तथा मानव जाति को प्रगति के पथ पर ले जाने वाली प्रबल शक्ति बन सकता है।

राजनीतिक चिन्तन का महत्व

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दुनिया में अनेक विद्वान राजनीतिक चिन्तन को अनुपयोगी एवं हानिप्रद मानते है। इसमें मुख्य रूप से बेकन, लेस्ली, स्टीफन, बर्क, डनिंङ आदि प्रमुख हैं। स्टीफन तो कहता है कि -वे देश भाग्यशाली है जिनके पास कोई राजनैतिक दर्शन नहीं है क्योंकि ऐसा तत्व चिन्तन निकट भविष्य में होने वाली क्रान्तिकारी उथलपुथल का सूचक होता है। डनिंग का स्पष्ट मत था कि - जब कोई राजनैतिक पद्धति राजनैतिक दर्शन का स्वरूप ग्रहण करने लगे तो समझ लेना चाहिए कि उसके विनाश की घड़ी आ गई है।" उपरोक्त कथन चिन्तन को भी मानते है। वे इसे आदर्शवादी, काल्पनिक, भ्रम पैदा करने वाला मानते है। वे तर्क देते है कि अच्छे विचारक प्रायः अच्छे शासक नहीं होते हैं। वे कहते हैं कि सैद्धान्तिक ज्ञान व्यावहारिक नहीं होता है तथा व्यावहारिक ज्ञान सिद्धान्त पर खरा नहीं उतरता है। प्लेटो इसका आदर्श उदाहरण है। वह अपने आदर्श राज्य को मूर्त रूप देने में पूर्णतः असफल रहा।

इसका दूसरा दोष यह है कि अधिकांश विचार परिस्थितिजन्य होते हैं। अतः उनका सामान्यीकरण करते हुए सिद्धान्त नहीं बनाया जा सकता। राजनैतिक दर्शन में हाल्स, रूसो तथा मैकियावेली के मानव सम्बन्धी विचार तत्कालीन समाज की देन थे। कतिपय यही कारण था कि तत्कालीन परिस्थितियों में उपजी निराशा, हताशा ने उनके विचार को मानव के प्रति नकारात्मक बना दिया था। उपरोक्त दोष के होते हुए भी चिन्तन का अध्ययन मानवोपयोगी है। इससे होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं-

  • (१) राज्य और उसका मूर्त रूप सरकार है। यह मानव से निर्मित है तथा मानव के इर्द-गिर्द ही घूमता है। अतः मानव के संबंध में विचार करना, विभिन्न प्रश्नों पर विचार करना सदैव से मानव तथा समाज के लिये लाभदायक रहा है।
  • (२) राजनीतिक चिन्तन का मानव के साथ घनिष्ट संबंध रहा है। विद्वानों द्वारा समय-समय पर प्रतिपादित विभिन्न सिद्धान्तों ने मानव को बहुत लाभ पहुंचाया है। रूसो के विचारों ने 18वीं शताब्दी में फ्रांसीसी क्रान्ति को जन्म दिया और इसी क्रान्ति से समानता, स्वतन्त्रता तथा भाईचारे का विचार सामने आया। कार्ल मार्क्स ने 20वीं शताब्दी में बोल्शेविक क्रान्ति को जन्म दिया। इसी से साम्यवादी विचारधारा का उदय हुआ।
  • (४) राजनीतिक चिन्तन के अध्ययन से एक अन्य लाभ यह होता है इससे हमें ऐतिहासिक घटनाओं को समझने और उसकी व्याख्या करने में सहायता मिलती है।
  • (५) इससे वर्तमान घटनाओं को समझने में सहायता मिलती है। वर्तमान समस्याओं की जड़ सदैव इतिहास में रहती है। अतः उसका निवारण भी इतिहास से आता है। चिन्तन समस्या का निवारण ही नहीं करता वरन भविष्य में आने वाली समस्याओं का हल एवं मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है।

इस प्रकार से स्पष्ट है कि चिन्तन का अध्ययन प्रत्येक दृष्टि से लाभप्रद है। यह स्वभाविक प्रक्रिया है जो लम्बे समय से चली आ रही है।

प्रमुख राजनीतिक विचारक और उनके सिद्धांत

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प्राचीन राजनीतिक दार्शनिक

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  • सुकरात : व्यापक रूप से एथेनियन समकालीनों पर अपने मौखिक प्रभाव के माध्यम से पश्चिमी राजनीतिक दर्शन के संस्थापक माने जाते हैं; चूंकि सुकरात ने कभी कुछ नहीं लिखा, इसलिए हम उनके और उनकी शिक्षाओं के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह उनके सबसे प्रसिद्ध छात्र प्लेटो के माध्यम से आता है।
  • प्लेटो: प्लेटो का राजनीतिक दर्शन, राजनीति की पहली महान सैद्धांतिक समीक्षा है और यकीनन प्लेटो के दर्शन का मूल : उनका सबसे व्यापक और प्रसिद्ध कृति, "गणतंत्र (Republic)" , न्याय के आधारभूत राजनीतिक प्रश्न पर केंद्रित है। प्लेटो ने जिन राजनीतिक मुद्दों की पड़ताल की, उनमें सरकार के सर्वोत्तम और सबसे व्यावहारिक रूप ("गणतंत्र" और "लॉज़" में), राजनीतिक ज्ञान या राजनीतिक "विज्ञान" का दायरा ("स्टेट्समैन" में) और लोकतंत्र और कुलीनतंत्र जैसे सरकार के रूपों का मूल्यांकन करने का उचित तरीका शामिल हैं। वह अपने आदर्श नगर राज्य (कैलिपोलिस) और दार्शनिक- राजा के विचारों के साथ-साथ लोकतंत्र की आलोचना और अभिजाततंत्र का समर्थन करने के लिये प्रचलित है।
अरस्तू के ग्रंथ "पॉलिटिक्स" पर सन्त थॉमस एक्विनास का भाष्य व टिप्पणी।
  • अरस्तू : "राजनीति (Politics)" को अपने  "निकोमाचियन नीतिशास्त्र " के विस्तारित अंग के रूप में लिखा । वह इस सिद्धांतो के लिए उल्लेखनीय है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी (जानवर) हैं, और यह कि पोलिस (प्राचीन ग्रीक शहर राज्य) ऐसे प्राणी (जानवर) के लिए उपयुक्त अच्छा जीवन लाने के लिए होता है। उनका राजनीतिक सिद्धांत परिपूर्णतावाद की नैतिकता पर आधारित है (जैसा कि मार्क्स का है)।[2] 
  • कन्फ्यूशियस : नैतिकता को राजनीतिक व्यवस्था से जोड़ने वाले पहले विचारक।
  • हान फीजी : चीनी फजिया (विधिवादी) स्कूल की प्रमुख हस्ती , सरकार की वकालत करती है जो कानूनों और प्रशासन की एक सख्त पद्धति का पालन करती है।
  • मेनसियस : कन्फ्यूशियस स्कूल में सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में से एक, वह पहले सिद्धांतकार हैं जिन्होंने प्रजा के प्रति शासकों के दायित्व के लिए एक सुसंगत तर्क दिया।
  • मोजी : मोहिस्ट स्कूल के नामांकित संस्थापक, परिणामवाद के एक रूप की वकालत करते हैं ।
  • चाणक्य : प्रभावशाली पाठ अर्थशास्त्र लिखा , एशियाई इतिहास के कुछ शुरुआती राजनीतिकविचारक। उन्हें मैकियावेली का भारतीय अनुरूप माना जाता है हालांकि चाण्क्य कल्याणकारी अर्थव्यवस्था के बड़े समर्थक रहे हैं।

मध्यकालीन राजनीतिक दार्शनिक

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  • थॉमस एक्विनास : "विधि पर प्रकरण" में ईसाई धर्ममीमांसा और पेरिपेटेटिक (अरस्तूवादी) शिक्षण को संश्लेषित करने में  एक्विनास का तर्क है कि भगवान द्वारा उच्च तर्कशीलता का उपहार - मानव विधि में दैवीय गुणों के माध्यम से प्रकट होता है - धार्मिक सरकार की सभा को रास्ता देता है। 
निकोलो मैकियावेली
  • निकोलो मैकियावेली: राजनीति कैसे समीचीन और बुरे कार्यों को आवश्यक करता है का पहला व्यवस्थित विश्लेषण। आदर्शवाद पर भरोसा करने के बजाय यथार्थवादी दृष्टिकोण से शासन कला का लेखा-जोखा दिया। मैकियावेली ने एक सुव्यवस्थित गणतांत्रिक राज्य को कैसे चलाया जाए, इस पर अभिशंसा भी जारी कीं, क्योंकि उन्होंने उसे एकतंत्र की तुलना में सरकार के बेहतर रूपों के रूप में देखा।[3]

आधुनिक राजनीतिक दार्शनिक

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  • थॉमस हॉब्स : आम तौर पर माना जाता है कि उन्होंने सबसे पहले यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार एक सामाजिक अनुबंध (संविदा) की अवधारणा, जो शासकों के कार्यों को न्यायोचित ठहराती है (यहां तक ​​​​कि जहां शासित नागरिकों की व्यक्तिगत इच्छाओं के विपरीत), संप्रभुता की अवधारणा के साथ सामंजस्य स्थापित कर सकती है।
  • जॉन लॉक : हॉब्स की तरह,  "प्रकृति की अवस्था" में नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर आधारित एक सामाजिक अनुबंध सिद्धांत का वर्णन किया । वह हॉब्स से इस प्रकार अलग हैं कि ; एक ऐसे समाज की धारणा के आधार पर जिसमें नैतिक मूल्य सरकारी प्राधिकरण से स्वतंत्र हैं और व्यापक रूप से साझा किए गए हैं, उन्होंने व्यक्तिगत संपत्ति की सुरक्षा तक सीमित शक्ति वाली सरकार के लिए तर्क दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के गठन के लिए उनके तर्कों का गहरा प्रभाव हो सकता है ।
  • रूसो : सामान्य इच्छा की अभिव्यंजना के रूप में सामाजिक अनुबंध का विश्लेषण किया , और विवादास्पद रूप से पूर्ण लोकतंत्र के पक्ष में तर्क दिया जहां बड़े पैमाने पर लोग संप्रभु के रूप में कार्य करेंगे ।[4]
रूसो की "सामाजिक अनुबंध" का प्रथम पृष्ठ
  • स्पिनोज़ा : तर्कसंगत अहंवाद का पहला विश्लेषण प्रस्तुत किया , जिसमें स्वयं का तर्कसंगत हित, शुद्ध तर्कबुद्धि के अनुरूप है। स्पिनोज़ा की सोच के लिए, एक ऐसे समाज में जिसमें प्रत्येक व्यक्ति तर्कबुद्धि द्वारा निर्देशित होता है, राजनीतिक सत्ता अनावश्यक होगी।
  • मॉन्टेस्क्यू : राज्य के विभाजनों में "शक्तियों के संतुलन" द्वारा लोगों की सुरक्षा का विश्लेषण।
  • फ्रेंकोइस-मैरी अरोएत (वोल्तेयर) : फ्रांसीसी ज्ञानोदय लेखक, कवि और दार्शनिक नागरिक स्वतंत्रता की अपनी वकालत के लिए प्रसिद्ध हैं, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता और मुक्त व्यापार शामिल है।
  • डेविड ह्यूम : ह्यूम ने जॉन लॉक और अन्य के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत की आलोचना करते हुए कहा कि यह किसी वास्तविक समझौते के मिथक पर आधारित है। राज्यों के अस्तित्व को गढ़ने में बल की भूमिका को पहचानने में ह्यूम एक यथार्थवादी थे और शासितों की सहमति केवल काल्पनिक थी। उन्होंने उपयोगिता की अवधारणा को भी प्रस्तुत किया , जिसे बाद में जेरेमी बेंथम द्वारा विकसित किया गया । ह्यूम ने 'है/चाहिए' की समस्या भी गढ़ी, यानी यह विचार कि सिर्फ इसलिए कि कुछ है का मतलब यह नहीं है कि उसे ऐसा ही होना चाहिए। यह निर्देशात्मक राजनीति पर बहुत प्रभावशाली था।
  • इमैनुएल कांट : तर्क दिया कि थॉमस हॉब्स के अनुसार, 'नागरिक-समाज' में भागीदारी आत्म-संरक्षण के लिए नहीं , बल्कि एक नैतिक कर्तव्य के रूप में की जाती है। पहले आधुनिक विचारक जिन्होंने दायित्व की संरचना और अर्थ का पूरी तरह से विश्लेषण किया। तर्क दिया कि विश्व शांति को बनाए रखने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता थी।
  • एडम स्मिथ : प्राय: कहा जाता है कि उन्होंने आधुनिक अर्थशास्त्र की स्थापना की ; कारीगरों और व्यापारियों के स्वार्थी व्यवहार ("अदृश्य हाथ") से आर्थिक लाभ के उद्भव की व्याख्या की। इसकी दक्षता की प्रशंसा करने के साथ ही , स्मिथ ने श्रमिकों पर औद्योगिक श्रम (जैसे, दोहराव वाली गतिविधि) के दुष्प्रभाव के बारे में भी चिंता व्यक्त की। नैतिक भावनाओं पर उनके कृति ने आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने वाले सामाजिक बंधनों की व्याख्या करने का प्रयास किया।
  • एडमंड बर्क : ब्रिटिश संसद के आयरिश सदस्य, बर्क को रूढ़िवादी विचार के निर्माण का श्रेय दिया जाता है ।फ्रांस में क्रांति पर बर्क का विमर्श उनके लेखन में सबसे लोकप्रिय है जहां उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति की निंदा की। बर्क अमेरिकी क्रांति के सबसे बड़े समर्थकों में से एक थे।
  • थॉमस पेन : प्रबुद्धकालीन  लेखक जिन्होंने "कॉमन सेन्स" और "द राइट्स ऑफ मैन" में उदार लोकतंत्र , अमेरिकी क्रांति , और  फ्रांसीसी क्रांति का बचाव किया ।
  • थॉमस जेफ़र्सन : अमेरिकी प्रबुद्धता के दौरान राजनीतिज्ञ और राजनीतिक सिद्धांतकार । संयुक्त राज्य अमेरिका में गणतंत्रवाद को साधने के द्वारा थॉमस पेन के दर्शन पर विस्तार किया गया । संयुक्त राज्य अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के लिए सबसे प्रसिद्ध ।
  • जेरेमी बेंथम : कुल व्यक्तिगत लाभों को अधिकतम करने के संदर्भ में सामाजिक न्याय का विश्लेषण करने वाले पहले विचारक। उपयोगितावाद के रूप में जाने जाने वाले विचार के दार्शनिक/नैतिक स्कूल की स्थापना की ।
  • जेम्स मैडिसन : अमेरिकी राजनेता और जेफरसन के आश्रित को संयुक्त राज्य अमेरिका के " संविधान का जनक " और " अधिकारों के विधेयक का जनक" माना जाता है। एक राजनीतिक सिद्धांतकार के रूप में, वह शक्तियों को अलग करने में विश्वास करते थे और बहुमत के अत्याचार से किसी व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा के लिए जरूरी जांच और संतुलन का एक व्यापक सेट प्रस्तावित करते थे ।
  • हेगेल : इतिहास की "चतुरता" पर बल दिया, यह तर्क देते हुए कि यह एक तर्कसंगत प्रक्षेपवक्र का अनुसरण करता है, यहां तक ​​कि प्रतीत होने वाली तर्कहीन ताकतों को मूर्त रूप देते हुए भी; मार्क्स, कीर्केगार्ड , नीत्शे और ओकेशॉट को प्रभावित किया।
  • मिखाइल बाकूनिन : पियरे जोसेफ प्राउडॉन के बाद, बाकुनिन अराजकतावाद का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दार्शनिक बन गया । अराजकतावाद के उनके विशिष्ट संस्करण को सामूहिकवादी अराजकतावाद कहा जाता है
साम्यवाद की प्रमुख हस्तियां- मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन,स्टालिन।

समकालीन राजनीतिक दार्शनिक

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  • जॉन डेवी : व्यावहारिकतावाद के सह-संस्थापक और लोकतांत्रिक सरकार के रखरखाव में शिक्षा की आवश्यक भूमिका का विश्लेषण किया।
  • ग्योर्गी लुकाक्स : हंगेरियाई  मार्क्सवादी सिद्धांतकार, सौन्दर्यशास्त्रि, साहित्यिक इतिहासकार और आलोचक। पश्चिमी मार्क्सवाद के संस्थापकों में से एक । अपनी महान कृति "इतिहास और वर्ग चेतना" में, उन्होंने वर्ग चेतना के मार्क्सवादी सिद्धांत को विकसित किया और " पुनर्मूल्यांकन " की अवधारणा पेश की ।
  • कार्ल श्मिट : जर्मन राजनीतिक सिद्धांतकार, नाजियों से जुड़े, जिन्होंने "मित्र/शत्रु भेद" और "अपवाद की अवस्था" की अवधारणाओं को विकसित किया। हालांकि उनकी सबसे प्रभावशाली पुस्तकें 1920 के दशक में लिखी गई थीं, उन्होंने 1985 में अपनी मृत्यु (अकादमिक अर्ध-निर्वासन में) तक लगातार लिखना जारी रखा। उन्होंने फ्रैंकफर्ट स्कूल के भीतर और अन्य लोगों के बीच 20वीं सदी के राजनीतिक दर्शन को बहुत प्रभावित किया, जिनमें से सभी नहीं दार्शनिक हैं, जैसे कि जैक्स डेरिडा , हन्ना अरेंड्ट , और जियोर्जियो एगाम्बेन ।
  • एंटोनियो ग्राम्स्की : सांस्कृतिक आधिपत्य की अवधारणा को बढ़ावा दिया । तर्क दिया कि राज्य और शासक वर्ग अपने शासन वाले वर्गों की सहमति प्राप्त करने के लिए संस्कृति और विचारधारा का उपयोग करते हैं।
  • हर्बर्ट मार्क्युज़ : "नए वामपंथ" का जनक कहा जाता है । फ्रैंकफर्ट स्कूल के भीतर प्रमुख विचारकों में से एक , और आम तौर पर सिगमंड फ्रायड और कार्ल मार्क्स के विचारों को संश्लेषित करने के प्रयासों में महत्वपूर्ण है । " दमनकारी निर्बलीकरण " की अवधारणा का परिचय दिया , जिसमें सामाजिक नियंत्रण न केवल प्रत्यक्ष नियंत्रण से संचालित हो सकता है, बल्कि इच्छा के हेरफेर से भी संचालित हो सकता है। उनका काम "इरोस और सभ्यता" और एक गैर-दमनकारी समाज की धारणा 1960 के दशक और इसके प्रति-सांस्कृतिक सामाजिक आंदोलनों पर प्रभावशाली थी।
  • लियो स्ट्रॉस : प्रसिद्ध रूप से आधुनिकता को खारिज कर दिया, ज्यादातर इस आधार पर कि वह आधुनिक राजनीतिक दर्शन को तर्क की अत्यधिक आत्मनिर्भरता और नैतिक और राजनीतिक मानदंड के लिए त्रुटिपूर्ण दार्शनिक आधार मानते थे। उन्होंने तर्क दिया कि इसके बजाय हमें समसामयिक मुद्दों के उत्तर के लिए पूर्व-आधुनिक विचारकों की ओर लौटना चाहिए। उनका दर्शन नवरूढ़िवाद के गठन पर प्रभावशाली था , और उनके कई छात्र बाद में बुश प्रशासन के सदस्य थे ।[5]
  • फ्रेडरिक हायेक : उन्होंने तर्क दिया कि केंद्रीय नियोजन अक्षम था क्योंकि केंद्रीय निकायों के सदस्यों को वर्तमान परिस्थितियों के साथ उपभोक्ताओं और श्रमिकों की प्राथमिकताओं से मेल खाने के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं थी। हायेक ने आगे तर्क दिया कि केंद्रीय आर्थिक नियोजन - समाजवाद का एक मुख्य आधार - खतरनाक शक्ति वाले "कुल" राज्य की ओर ले जाएगा। उन्होंने मुक्त-बाजार पूंजीवाद की वकालत की जिसमें राज्य की मुख्य भूमिका विधि के शासन को बनाए रखना और स्वःप्रवर्तित व्यवस्था को विकसित होने देना है।
  • ऐन रैंड : वास्तुनिष्ठावाद के संस्थापक और बीसवीं सदी के मध्य अमेरिका में वास्तुनिष्ठावादी और स्वतंत्रतावादी आंदोलनों की प्रमुख प्रस्तावक। पूर्ण अहस्तक्षेप पूंजीवाद की वकालत की। रैंड ने माना कि सरकार की उचित भूमिका विशेष रूप से आर्थिक हस्तक्षेप के बिना व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा थी।सरकार को उसी तरह अर्थव्यवस्था से अलग किया जाना चाहिए जिन कारणों से इसे धर्म से अलग किया गया था। कोई भी सरकारी कार्रवाई जो व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा के लिए निर्देशित नहीं है, बल (या बल की धमकी) की पहल का गठन करेगी, और इसलिए न केवल अधिकारों का उल्लंघन बल्कि सरकार के वैध कार्य का भी उल्लंघन होगा।[6]
  • यशायाह बर्लिन : सकारात्मक और नकारात्मक स्वतंत्रता के बीच अंतर विकसित किया। 
  • जॉन रॉल्स : अपनी 1971 की पुस्तक "ए थ्योरी ऑफ़ जस्टिस" के साथ एंग्लो-अमेरिकन विश्वविद्यालयों में निर्देशात्मक राजनीतिक दर्शन के अध्ययन को पुनर्जीवित किया , जो न्याय के बारे में मौलिक सवालों के जवाब देने और उपयोगितावाद की आलोचना करने के लिए सामाजिक अनुबंध सिद्धांत के एक संस्करण का उपयोग करता है ।
  • प्रभात रंजन सरकार : सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दर्शन प्रगतिशील उपयोगिता सिद्धांत के लिए जाने जाते हैं।
  • नोआम चॉम्स्की : उन्हें व्यापक रूप से मानव विज्ञान में संज्ञानात्मक क्रांति को चिंगारी देने में मदद करने, भाषा और मन के अध्ययन के लिए एक नए संज्ञानात्मक ढांचे के विकास में योगदान देने के लिए जाना जाता है। चॉम्स्की अमेरिकी विदेश नीति, नवउदारवाद और समकालीन राज्य पूंजीवाद, इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष और मुख्यधारा के समाचार मीडिया के प्रमुख आलोचक हैं। उनके विचार पूंजीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों में अत्यधिक प्रभावशाली साबित हुए हैं, और अराजक-संघवाद और उदारवादी समाजवाद के साथ संरेखित हैं।
  • जुरगेन हेबरमास : दार्शनिक और सामाजिक आलोचक।उन्होंने "सार्वजनिक क्षेत्र" , "संचारी कार्रवाई" और "विचारशील लोकतंत्र" जैसी अवधारणाओं को आगे बढ़ाया है। उनका शुरुआती काम फ्रैंकफर्ट स्कूल से काफी प्रभावित था ।
फ्रैंकफर्ट विचारशाला के अडोर्नो, होर्खाइमर और हैबरमास।
  • बर्नार्ड विलियम्स : एक ब्रिटिश नैतिक दार्शनिक जिसका राजनीतिक दर्शन पर मरणोपरांत प्रकाशित कार्य "इन द बिगिनिंग वाज़ द डीड" को,  रेमंड ग्यूस के कार्यों के साथ-साथ राजनीतिक यथार्थवाद पर एक महत्वपूर्ण मूलभूत कार्य के रूप में देखा गया है।
  • रॉबर्ट नोजिक : रॉल्स की आलोचना की, और  राज्य  और संपत्ति के एक काल्पनिक इतिहास की अपील के द्वारा स्वतंत्रतावाद के लिए तर्क दिया।  
  • विलियम ई. कोनोली : राजनीतिक सिद्धांत में उत्तराधुनिक दर्शन को पेश करने में मदद की, और बहुलवाद और अज्ञेय लोकतंत्र के नए सिद्धांतों को बढ़ावा दिया ।
  • मिशेल फौकॉल्ट : जेल परिसर और अन्य निषेधात्मक संस्थानों जैसे कि जो कामुकता, पागलपन और ज्ञान को स्वयं के बुनियादी ढांचे की जड़ों के रूप में नामित करते हैं, के आधार पर शक्ति की आधुनिक अवधारणा की आलोचना की  , एक आलोचना जिसने प्रदर्शित किया कि,किसी भी भाषाई मंच पर अधीनता, विषयों की शक्ति गठन है और कि क्रांति को केवल वर्गों के बीच सत्ता के उलटफेर के रूप में नहीं सोचा जा सकता है।
  • मुर्रे रोथबार्ड : अराजक-पूंजीवाद के केंद्रीय सिद्धांतकार और एक ऑस्ट्रियाई स्कूल के अर्थशास्त्री।

राजनीतिक सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण धाराएँ

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जिन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सिद्धान्तों की अहमियत कायम रही है और जो काल की कसौटी पर खरे उतरे हैं, वे निम्नलिखित हैं:

  1. क्लासिकी राजनीतिक सिद्धान्त
  2. उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्त
  3. मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धान्त
  4. आनुभविक वैज्ञानिक राजनीतिक सिद्धान्त
  5. समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त

सन्दर्भ

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  1. Miller, David (2016), "Political philosophy", Routledge Encyclopedia of Philosophy (1 संस्करण), Routledge, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-415-25069-6, डीओआइ:10.4324/9780415249126-s099-1, अभिगमन तिथि 2022-10-09
  2. Miller, Fred (2022), Zalta, Edward N.; Nodelman, Uri (संपा॰), "Aristotle's Political Theory", The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Fall 2022 संस्करण), Metaphysics Research Lab, Stanford University, अभिगमन तिथि 2023-01-14
  3. Nederman, Cary (2022), Zalta, Edward N. (संपा॰), "Niccolò Machiavelli", The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Summer 2022 संस्करण), Metaphysics Research Lab, Stanford University, अभिगमन तिथि 2023-01-15
  4. Bertram, Christopher (2020), Zalta, Edward N. (संपा॰), "Jean Jacques Rousseau", The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Winter 2020 संस्करण), Metaphysics Research Lab, Stanford University, अभिगमन तिथि 2023-01-15
  5. Batnitzky, Leora (2021), Zalta, Edward N. (संपा॰), "Leo Strauss", The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Summer 2021 संस्करण), Metaphysics Research Lab, Stanford University, अभिगमन तिथि 2023-01-16
  6. Badhwar, Neera K.; Long, Roderick T. (2020), Zalta, Edward N. (संपा॰), "Ayn Rand", The Stanford Encyclopedia of Philosophy (Fall 2020 संस्करण), Metaphysics Research Lab, Stanford University, अभिगमन तिथि 2023-01-16

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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