बिनोद बिहारी वर्मा
बिनोद बिहारी वर्मा (१९३७ - २००३) मैथिली भाषा के साहित्यकार, मेडिकल चिकित्सक, एवं भारतीय सेना के अधिकारी थे। वे पन्जी के उत्कृष्ट संशोधन् के लिए जाने जाते हैं। उनकी रचना 'मैथिली कर्ण कायस्थक पांजिक् सर्वेक्षण्' जो मैथिली भाषा में प्रकाशित है, पुरातत्व पांजियों पर आधारित है। उनकी अन्य रचनाऐं निम्न वर्ग के लोगों की जीवनशैली को दर्शाति है जो बहुत ही मर्मस्पर्शी है। अपने जीवनकाल में उन्होंने भारतीय सेना में एक उच्च अधिकारी एवं चिकित्सक् और् सेवा निवृत्ति के उपरान्त डेन्टल कॉलेज में प्राचार्य के रूप में मह्त्वपूर्ण योगदान दिया। अपने काम को द्क्षता से निभाते हुए उन्होंने मैथिली साहित्य के क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया। उनकी कुछ कृतियाँ,"मिथिला मिहिर" ऑर "कर्णामृत्" जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने अपनी पुस्तकॉ को स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित किय। उनका उर्दू, संस्कृत, उड़िया, असमिया एवं बांगला जैसी प्रमु़ख भारतीय भाषाओं पर आधिपत्य था। वे तिरहुत (पुरानि मैथिली), असमिया, गुरमुखी, उड़िया और नेपाली लीपी के भी ज्ञाता थे।
जीवनी
[संपादित करें]प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा
[संपादित करें]बिनोद बिहारी वर्मा का जन्म ३ दिसम्बर १९३७ को बिहार के दरभंगा जिले के बौऊर नामक स्थान पर एक मैथिल कर्ण कायस्थ के ज़मिन्दार परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम रामेश्वर लाल दास एवं माता का नाम योगमाया देवी था। उनके पिता एक स्वतन्त्रता सेनानी, प्रमुख गांधीवादी और समाजसेवी थे। उन्होंने गरीब एवं असहाय लोगों के उद्धार के लिए अनथक प्रयास किए। उन्होंने इन मानव मूल्यों को अपने बच्चों में भी सींचा। यही मानव मूल्य हमें डॉ॰ वर्मा के लेखन शैली में भी नज़र आती है। उनके पिता अपने भाई आनन्द किशोर लाल दास के साथ एक संयुक्त परिवार में रहते थे। डॉ॰ वर्मा नें अपनी प्राथमिक शिक्षा रसियारी गाँव में पूर्ण किया जो कमला बलान नदी के किनारे बसा हुआ है। अपने गाँव में उच्च शैक्षिक संस्थान के अभाव में वे दक्षिण बिहार (अब झारखण्ड) के विभिन्न प्रान्तों में अपने पिता और चाचा के साथ रहे और वहीं के विद्यालयों में शिक्षा अर्जित किया। इन इलाकों में उनके पिता एवं चाचा, बापू के अहिंसा और स्वावलम्बन जैसे सिध्दान्तो एवं आदर्शों का प्रचार किया करते थे और लोगों को देश की स्वतन्त्रता के प्रति प्रेरित किया करते थे। डॉ॰ वर्मा दक्षिण बिहार के आदिवासी इलाकों जैसे चायबासा, राँची, सिंहभूम में भी रहे। वहाँ रहते हुए उन्होंने वहाँ के गरीब लोगों के जीवनशैली को समझने का प्रयास किया। उन्होंने समाज के इस आर्थिक एवं जातीय व्यवस्था का बड़ी सूक्ष्मता से अध्ययन किया जो आगे चल कर हमें उनकी लेखन शैली में भी दिखती है, जहाँ पर उन्होंने इन स्थानीय लोगों के जीवन का बहुत ही सजीव चित्रण किया है। प्रारम्भिक दिनों में उन्होंने चायबासा के जिला स्कूल में विद्या-अध्ययन किया। उसके बाद राँची के सेंट जॉन मिशनरी स्कूल एवं मुज़फ्फरपुर के लंगटसिंह विश्वविद्यलय से शिक्षा अर्जित किया। तदुपरान्त १९६२ में दरभंगा मेडिकल कॉलेज से एम बी बी एस की उपाधि प्राप्त किया।
सैनिक जीवन
[संपादित करें]१९६२ में चीनी युद्ध के दौरान, डॉ॰ वर्मा ने भारतीय सेना में अपने कार्यकाली जीवन का प्रारम्भ किया। १९६३ में उन्हें आर्मी मेडिकल कोर (ए एम सी) में एक अधिकारी के रूप में कमिशन मिला। अपने कार्यकाली जीवन में उन्हें भारत के दूर दराज़ के इलाकों एवं सीमा से सटे हुए कई प्रान्तों में रहने का मौका मिला।
ले़खन
[संपादित करें]उनकी प्रमुख रचनाओं में मैथिल कर्ण कायस्थक पान्जिक सर्वेक्षण (शोध कार्य) है।
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