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जैन ध्यान

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यौगिक ध्यान में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा।

जैन ध्यानरत्नत्रय के साथ-साथ, जैन धर्म में आध्यात्मिकता की केन्द्रीय क्रिया रही हैं।[1] जैन धर्म में ध्यान का उद्देश्य स्वयं को साकार करना, आत्ममुक्ति पाना और आत्मा को पूर्ण स्वतंत्रता की ओंर ले जाना हैं।[2] इसका लक्ष्य उस शुद्ध अवस्था तक पहुँचने और उसी में रहने हैं, जो शुद्ध चेतन मानी जाती हैं तथा किसी भी लगाव या घृणा से परे हैं। ध्यान करने वाला सिर्फ एक ज्ञाता-द्रष्टा बनने का प्रयास करता हैं। जैन ध्यान को मोटे तौर पर निम्न तरह से वर्गीकृत कर सकते हैं - शुभ (धार्म्य ध्यान और शुक्ल ध्यान) तथा अशुभ (अर्त ध्यान और रूद्र ध्यान)। 

सामायिक

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Demotivation सक्सेस जैसे ताले की key  है 

जैन ध्यान का एक रूप सामायिक भी हैं। सामायिक शब्द का अर्थ हैं निरंतर वास्तविक समय के क्षण में रहना। आम तौर पर ब्रह्माण्ड के निरंतर नवीकरण की तथा विशिष्ट तौर पर स्वयं के वैयक्तिक जीव के नवीकरण की इस क्रिया में जागरूक रहना खुद की सच्ची प्रकृति यानी आत्मन के पहचान की यात्रा का प्रथम महत्वपूर्ण कदम हैं। यह एक ऐसी भी विधि जिसके द्वारा कोई अन्य मनुष्यों और प्रकृति के प्रति सद्भाव और सम्मान एक दृष्टिकोण विकसित कर सकता हैं।

सामयिक मुनि और श्रावक दोनों के छः आवश्यकों में से एक है। अर्थात यह रोज दोहरायी जाने वाली क्रिया है।

गृहस्थों के लिए 

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शुरआत में सिखने के कुछ योग आसन Archived 2019-12-17 at the वेबैक मशीन

संन्यासियों के लिए

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बारह भावनाएँ

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भगवान महावीर के केवल ज्ञान (सर्वज्ञता) प्राप्ति का चित्रण

जो कर्मों का अंतर्वाह, साथ ही स्थानांतरगमन (पुनर्जन्म), रोकना चाहते हैं, उनके लिए, जैन ग्रंथों ने बारह भावनाओं पर ध्यान देने की सलाह दी हैं। वे बारह भावनाएँ निम्न प्रकार की हैं - [3]

1. अनित्य भावना – दुनिया की क्षण-भंगुरता या अस्थायित्व;

2. अशरण भावना – संसार में आत्मा की लाचारी;

3. संसार  – संसार (जन्म मरण) में निहित दर्द और पीड़ा;

4. एकत्व भावना  – किसी की पीड़ा और दुःख को साझा करने की अक्षमता;

5. अन्यत्व भावना  – शरीर और आत्मा के बीच का अंतर;

6. अशुचि भावना – शरीर की मलिनता;

7. अस्रव भावना  – कार्मिक पुद्गल का अन्तर्वाह;

8. संवर भावना – कार्मिक पुद्गल का ठहराव;

9. निर्जर भावना – कार्मिक पुद्गल का क्रमिक छितरना;

10. लोक भावना  – ब्रह्माण्ड के रूप और विभाजन तथा विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित स्तिथियों की प्रकृति, जैसे स्वर्ग, नरक, इत्यादि;

11. बोधिदुर्लभ भावना – मनुष्य जन्म प्राप्त करने में, और तत्पश्चात्, सच्ची आस्था पाने में बेहद कठिनाई;

12. धर्म भावनाजिन भगवान द्वारा प्रख्यापित सत्य।

प्रेक्षाध्यान

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१९७० के दशक में, श्वेताम्बर तेर्पथ समुदाय के आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षा ध्यान नामक एक ध्यान के प्रकार का अन्वेषण किया।[4]

इन्हें भी देखें

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टिप्पणियाँ

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  1. Acharya Mahapragya (2004). "Foreword". Jain Yog. Aadarsh Saahitya Sangh.
  2. Acharya Tulsi (2004). "blessings". Sambodhi. Aadarsh Saahitya Sangh.
  3. Jain 2012, पृ॰ 149-150.
  4. "Preksha Meditation". Preksha International. मूल से 1 जून 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2010-07-26.

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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