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सप्ताह की पुस्तक
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शिवशम्भु के चिट्ठे बालमुकुंद गुप्त द्वारा रचित व्यंग्य-शृंखला है जिसका प्रकाशन भारतमित्र के सन् १९०३ ई॰ के विभिन्न अंकों में हुआ था।

"माइ लार्ड! लड़कपन में इस बूढ़े भङ्गडको बुलबुला का बड़ा चाव था। गांवमें कितने ही शौकीन बुलबुलबाज थे। वह बुलबुलें पकड़ते थे, पालते थे और लड़ाते थे। बालक शिवशम्भु शर्म्मा बुलबुलें लड़ानेका चाव नहीं रखता था। केवल एक बुलबुलको हाथपर बिठा कर ही प्रसन्न होना चाहता था। पर ब्राह्मणकुमारकों बुलबुल कैसे मिले? पिता को यह भय कि बालकको बुलबुल दी तो वह मार देगा, हत्या होगी। अथवा उसके हाथसे बिल्ली छीन लेगी तो पाप होगा। बहुत अनुरोधसे यदि पिता ने किसी मित्रकी बुलबुल किसी दिन ला भी दी, तो वह एक घण्टे से अधिक नहीं रह पाती थी। वह भी पिताकी निगरानी में!..."(पूरा पढ़ें)


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‘’’नव-निधि’’’ १९४८ ई॰ में बनारस के सरस्वती-प्रेस द्वारा प्रकाशित प्रेमचंद के नौ भावपूर्ण कहानियों का एक संग्रह है। ये नौ कहानियाँ हैं –– राजा हरदौल, रानी सारन्धा, मर्यादा की वेदी, पाप का अग्निकुण्ड, जुगुनू की चमक, धोखा, अमावस्या की रात्रि, ममता तथा पछतावा।


बुन्देलखण्ड में ओरछा पुराना राज्य है। इसके राजा बुन्देले हैं। इन बुन्देलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है। एक समय ओरछे के राजा जुझारसिंह थे। ये बड़े साहसी और बुद्धिमान् थे। शाहजहाँ उस समय दिल्ली के बादशाह थे। जब शाहजहाँ लोदी ने बलवा किया और वह शाही मुल्क को लूटता पाटता ओरछे की ओर आ निकला, तब राजा जुझारसिंह ने उससे मोरचा लिया। राजा के इस काम से गुणग्राही शाहजहाँ बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरन्त ही राजा को दक्खिन का शासन-भार सौंपा। उस दिन ओरछे में बड़ा आनन्द मनाया गया। शाही दूत खिलअत और सनद लेकर राजा के पास आया। जुझारसिंह को बड़े-बड़े काम करने का अवसर मिला। सफ़र की तैयारियाँ होने लगी, तब राजा ने अपने छोटे भाई हरदौल सिंह को बुलाकर कहा-"भैया, मैं तो जाता हूँ। अब यह राज-पाट तुम्हारे सुपुर्द है। तुम भी इसे जी से प्यार करना। न्याय ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। न्याय की गढ़ी में कोई शत्रु नहीं घुस सकता, चाहे वह रावण की सेना या इन्द्र का बल लेकर आये। पर न्याय वही सच्चा है, जिसे प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल न्याय ही करना न होगा, बल्कि प्रजा को अपने न्याय का विश्वास भी दिलाना होगा। और मैं तुम्हें क्या समझाऊँ, तुम स्वयं समझदार हो।" (पूरा पढ़ें)



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सहकार्य

रचनाकार
रचनाकार

बालमुकुंद गुप्त (14 नवंबर 1865 — 18 सितंबर 1907) हिंदी के निबंधकार, कवि, नाटककार और संपादक थे। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:

  1. शिवशम्भु के चिट्ठे — पत्र शैली में लिखा गया व्यंग्य संग्रह

जयशंकर प्रसाद (30 जनवरी 1889 — 15 नवंबर 1937), हिंदी भाषा के कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार। विकिस्रोत पर उपलब्ध उनकी रचनाएँ:

  1. स्कंदगुप्त (1928), गुप्तकाल के अंतिम प्रसिद्ध शासक पर आधारित ऐतिहासिक नाटक
  2. एक घूँट (1929), हिंदी भाषा की प्रथम एकांकी
  3. आकाशदीप (1929), उन्नीस कहानियों का संग्रह
  4. ध्रुवस्वामिनी (1935), क्लीव पति से विवाहित हिंदू स्त्री के मुक्ति की गाथा पर आधारित नाटक
  5. कामायनी (1936), जल-प्लावन की गाथा पर आधारित आधुनिककालीन हिंदी का सबसे लोकप्रिय महाकाव्य
  6. काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध (1939), आठ निबंधों का संग्रह
  7. आँधी (1955), ग्यारह कहानियों का संग्रह

आज का पाठ

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रणजीत सिंह प्रेमचंद द्वारा रचित १५ महापुरुषों के जीवन-चरित संग्रह कलम, तलवार और त्याग का एक अध्याय है। इसका पहला संस्करण १९३९ ई॰ में बनारस के सरस्वती-प्रेस द्वारा प्रकाशित किया गया था।


"रणजीतसिह का जन्म सन् १७८० ई० में गुजरानवाला स्थान में हुआ, आम खयाल है कि उनके पिता एक गरीब जमींदार थे, पर यह ठीक नहीं है। उनके पिता सरदार महानसिंह सकर चकिया मिसिल के सरदार और बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। पर २७ ही वर्ष की अवस्था में स्वर्ग सिधार गये। रणजीतसिंह उस समय कुल जमा १० साल के थे और इसी उम्र में उनके सिर पर भयावह ज़िम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा। परन्तु अकबर की तरह वह भी प्रबन्ध और संगठन की योग्यता माँ के पेट से लेकर निकले थे, और इस दस वर्ष में ही कई लड़ाइयों में अपने पिता के साथ रह चुके थे। एक दिन एक भयानक युद्ध में वह बाल-बाल बचे। मानो उनका शैशव रणक्षेत्र में ही बीता और युद्ध के विद्यालय में ही उन्होने शिक्षा पाई। ८-१० साल का बच्चा, उसकी आँखों से नित्य मार-काट के दृश्ये गुजरते होंगे। कुटुम्ब के बड़े-बूढ़ों को चौपाल में बैठकर किसी पड़ोसी सरदार पर हमला करने के मंसूबे बाँधते या किसी बलवान् सरदार के आक्रमण से बचाव के उपाय सोचते देखता होगा और यह अनुभव उसके कोमल संस्कारपप्राही चित्र पर क्या कुछ छाप न छोड़ जाते होंगे! परवर्ती घटनाओं ने सिद्ध कर दिया कि यह अल्पवयस्क बालक तीक्ष्ण बुद्धि और प्रतिभावान् था, और जो शिक्षाएँ उसे मिलीं, उसके जीवन का अंग बन गई। उसने जो कुछ देखा, शिक्षा ग्रहण करने वाली दृष्टि से देखी। १२ वर्ष की अवस्था में बह सकर चकिया मिसिले के सरदार करार दिया गया और २० वें साल में कुछ अपनी बहादुरी और कुछ जोड़-होड़बाजी से लाहौर का राजा बन बैठा।..."(पूरा पढ़ें)

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