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बीटी बैंगन

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बीटी बैंगन (बैसिलस थुरियनजीनिसस बैंगन) जिसे बीटी कॉटन (कपास) के रूप में निर्मित किया गया है, एक आनुवांशिक संशोधित फसल है। बीटी को बैसिलस थुरियनजीनिसस (बीटी) नामक एक मृदा जीवाणु से प्राप्त किया जाता है। बीटी बैंगन और बीटी कपास (कॉटन) दोनों में इस विधि का प्रयोग होता है। आनुवांशिक संशोधित फसल (जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलें) यानी ऐसी फसलें जिनके गुणसूत्र में कुछ मामूली से परिवर्तन कर के उनके आकार-प्रकार और गुणवत्ता में मनवांछित स्वरूप प्राप्त किया जा सकता है। यह गुणवत्ता परिवर्तन फसल में कीटाणुनाशकों से लड़ने की क्षमता या पौष्टिकता में की वृद्धि रूप में भी हो सकती है। इसी वैज्ञानिक या अप्राकृतिक परिवर्तन को आनुवांशिक संशोधित फसल कहा जाता है। कई फसलों में आनुवांशिक (जीन्स में) परिवर्तन किया गया है। मकई, जिससे बना कॉर्नफ्लैक्स प्रात: नाश्ते में प्रयोग किया जाता है, भी इस प्रकार का ही एक संशोधित खाद्य है।

आनुवांशिक संशोधित फसलविधि में गुणसूत्र या डीएनए में उपस्थित जीन्स में परिवर्तन किया जाता है। वैज्ञानिकों को अब यह ज्ञात है कि प्राकृतिक तौर पर विभिन्न जीन्स को अलग-अलग कार्य बंटे हैं, जैसे, कुछ जीन्स प्रोटीन निर्माण करते हैं तो कुछ रासायनिक प्रक्रिया की देख-रेख करते हैं। मानव शरीर में भी यही प्रक्रिया चलती है। बीटी बैक्टीरिया में एक जीन होता है जो कुछ खास किस्म के लार्वा के विरुद्ध कार्य करता है। यह लार्वा कपास या बैंगन की फसल के लिए हानिकारक होते हैं। लार्वा विरोधी इस कोशिका को कपास या बैंगन के पौधे के डीएनए में कृत्रिम रूप से निषेचित किया जाता है। इस कोशिका के जीन्स में कीटनाशक कोड निहित होता है। कीटाणु जब इस जीन्स से बनी फसलों को खाना शुरू करते हैं, तो वे शीघ्र ही मर जाते हैं। इन जीन्स से निर्मित पौधों पर कीटनाशक मारने वाले छिड़काव का भी विपरीत प्रभाव नहीं होता है। इसी प्रकार अन्य कई फसलों को और बेहतर बनाए जाने पर भी कार्य प्रगति पर है।

यदि जीएम तकनीकी सब्जियों और अन्य कृषि उत्पादों की बेहतरी के लिए इस्तेमाल में लाई जाती है तो सवाल उठता है कि इन फसलों का विरोध क्यों हो रहा है? दरअसल शुरू से सभी जीएम फसलों का विरोध होता आया है। जीएम फसलों के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क दिए गए हैं। कई शोध कहते हैं कि फसलों में आ पहुंचने वाला बॉलवर्म जीवाणु रक्षा के लिए छोड़े गए जीन का तोड़ हासिल कर रहा है। अन्य शोधों में पता चला है कि पौधों पर कई और जीवाणु भी हमला करते हैं। कई लोगों का कहना है कि जीएम फसलों की पैदावार आम फसलों से अधिक है, तो कई अन्य इसके विपरीत आंकड़े पेश करते हैं।

भारत में इससे पूर्व जीएम राइस जैसी फसलों पर प्रयोग हो चुके हैं जिसमें प्रोटीन की अधिक मात्र मौजूद रहती है। इससे पूर्व देश में फसलों के हाइब्रिडाइजेशन भारतीय परिवेश के लिहाज से सही साबित नहीं हुए थे। जिस कारण महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और कई अन्य हिस्सों में फसलों को नुकसान पहुंचा था और किसानों द्वारा कर्ज के बोझ के कारण आत्महत्याएं करने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है।

जीएम फसलों से जुड़े उत्पादन संबंधी विषय भी हैं। साथ ही इससे जुड़े स्वास्थ्य और पर्यावरण मुद्दे भी हैं जिन पर विवाद जारी हैं। जीएम फसलों की लगातार जांच जारी है ताकि इससे जुड़ी एलर्जी आदि का पता चल सके। अभी तक कुछ ही मामलों में जीन ट्रांसफर समस्या का पता चल सका है। पर्यावरण पुरोधाओं का डर है कि निषेचित जीन अपने कार्य से इतर कार्रवाई कर सकता है जिस कारण अन्य पौधों को भी नुकसान पहुंचने का खतरा बना हुआ है। कुछ शोधों में ऐसा होता हुआ पाया भी गया है, लेकिन इसके मानव और पौधों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दूरगामी असर के बारे में अभी तक बाकायदा तरीके से विमर्श सामने नहीं आया है और इसी कारण पर्यावरण विशेषज्ञों की ओर से सवाल अभी तक कायम है।

लाभ-हानि

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पारंपरिक फसल उत्पादन से इतर जीन बदलाव से फसलों को न केवल हानिकारक कीटनाशकों से जूझने की क्षमता प्राप्त होती है, बल्कि उनमें सूखा झेलने और बेहतर पोषकता देने के गुण भी आते हैं। जीएम फसलें जल्द उगती हैं और उनकी कीमत कम होती है। ऐच्छिक बदलाव कुछ ही फसलें उगाकर प्राप्त किए जा सकते हैं। फसल के स्वाद आदि में बेहतरी के साथ गुणकारी तत्वों में बेहतरी से चुनने की क्षमता प्राप्त होती है और फसल में अनैच्छिक व व्यर्थ तत्वों की पुनरावृत्ति नहीं होती।

विशेषज्ञों के अनुसार इन क्षमताओं से कृषि उत्पादन में कम से कम श्रम से बढ़ोतरी की जा सकती है। कीटनाशकों का कम इस्तेमाल होता है। फसलों को विपरीत वातावरण में भी उगाया जा सकता है। कई देशों में विभिन्न किस्म की जीएम फसलें उगाई जा चुकी हैं।

स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें तो अभी तक इसका कोई पुख्ता प्रमाण मौजूद नहीं है कि जीएम फसलों से सेहत को सीधे तौर पर कोई नुकसान पहुंचता हो। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी भी नहीं है। जीएम फसलों से अनजाने में एलर्जी, एंटीबायटिक विरोध, पोषण की कमी और विषाक्तता (टॉक्सिंस) हो सकती है। इसके बावजूद विशेषज्ञों का कहना है कि हरेक भूखे पेट तक भोजन पहुंचाने के लिए हमें अपनी पारंपरिक भोजन शैली को ही आधार बनाना होगा।

भारतीय संदर्भ

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सन् 2002 में देश में 55 हजार किसानों ने देश के चार मध्य और दक्षिणी राज्यों में कपास फसल उगाई थी। फसल रोपने के चार माह बाद कपास के ऊपर उगने वाली रुई ने बढ़ना बंद कर दिया था। इसके बाद पत्तियां गिरने लगीं। बॉलवर्म भी फसलों को नुकसान पहुंचाने लगा था। अकेले आंध्र प्रदेश में ही कपास की 79 प्रतिशत फसल को नुकसान पहुंचा था।

मध्य प्रदेश में समूची कपास फसल बर्बाद हो गई थी। महाराष्ट्र में भी तीस हजार हैक्टेयर में उगाई गई फसल बर्बाद हो गई थी। नतीजतन, 200 से अधिक किसानों ने आत्महत्याएं की और करोड़ों रुपए का नुकसान हुआ। बाद में नतीजे सामने आए कि कीट के कारण फसल को नुकसान पहुंचा था और यह फसल पारंपरिक और बीटी दोनों थीं।

दरअसल, पहली बार 1996 में पहली बार जीएम बीज भारत में पेश किए गए थे। उससे पूर्व करीब 25 देशों में उनका इस्तेमाल किया जा चुका था। अब देश में दस अन्य जीएम फसलों के उत्पादन की तैयारी हो चुकी है। हालांकि इनके बाजार में आने का मार्ग तभी तय हो सकेगा जबकि बीटी बैंगन को व्यावसायिक तौर पर सफलता मिलेगी। अन्य फसलों में चावल, आलू, टमाटर, मक्का, मूंगफली, गोभी जैसी सब्जियां हैं।

वैसे कुल 56 जीएम फसलों के उत्पादन की तैयारी है जिनमें से 41 खाद्यान्न से जुड़ी हैं। हालांकि, बीटी कॉटन व्यावसायिक तौर पर जारी किया जा चुका है और इसे सफलता मिली है। लेकिन अन्य जो फसलें जिन पर अभी प्रयोगशाला में शोध चल रहे हैं वह हैं गेहूं, बासमती चावल, सेब, केला, पपीता, प्याज, तरबूज, मिर्च, कॉफी और सोयाबीन। कई गैर खाद्यान्न फसलों पर भी शोध जारी हैं।

अभी हाल में

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जीएम फसलों से जुड़े तमाम विरोधों को देखते हुए हाल में सरकार ने बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी बिल पर तेजी से कार्य करने का निर्णय लिया है। भारत में बीटी खाद्यान्न पर उठी बहस को लेकर पर्यावरण मंत्रालय ने निर्णय लिया है कि वह फिलहाल बीटी बैंगन की खेती को रोके रखेगी। बिल में जन स्वास्थ्य से जुड़े इस संबंध में एक तीन सदस्यीय स्वायत्त बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी की सिफारिश की गई है। इसके अतिरिक्त यह अथॉरिटी जीएम राइस और जीएम टमाटर आदि के प्रयोगों और उत्पादन संबंधी परीक्षणों पर भी नजर रखेगी। यानी इस अथॉरिटी के पास जीएम फसलों के व्यवसाय से जुड़े सभी उद्यमियों को अपने पास बुलाने का और समूचे जीएम व्यवसाय क्षेत्र पर नजर रखने का विशेषाधिकार होगा।

इस स्वायत्त इकाई की तीन शाखाएं होगी। पहली, कृषि, वन और मतस्य उद्योग पर नजर रखेगी, दूसरी, जन स्वास्थ्य और वैटरनरी मुद्दों पर और तीसरी औद्योगिक और पर्यावरण विषयों पर नजर रखेगी। अथॉरिटी के पास जैव-प्रौद्योगिकी में इस्तेमाल किए जाने वाले सभी ऑर्गेनिज्म के आयात पर नजर रखने और शोध मंजूरी देने संबंधी इकाई भी होगी। सरकार ने सिफारिश रखी है कि यदि कोई गैर कानूनी परीक्षण किया जाता है तो उसमें कम से कम पांच वर्ष की कैद और भारी जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस मामले में दोबारा अपराध करने वालों को और भी कड़ी सजा दी जाएगी। चूंकि जैव-प्रौद्योगिकी जन स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा है। बिल में अथॉरिटी के किसी निर्णय के खिलाफ शिकायत की सुनवाई करने संबंधी ट्राइब्यूनल स्थापित करने की भी सिफारिश की गई है।

यानी कहना न होगा कि यदि यह बिल शीघ्र संसद के जरिए नए कानून के तौर पर सामने आता है तो उसके तहत देश में बायोटेक उत्पादों पर शोध, उत्पादन और उनसे जुड़े व्यापार पर नए सिरे से नियामक लागू होंगे।

जीएम बीज का विवाद

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सन् 1996 में पहली जीएम फसल के कमर्शियल इस्तेमाल के बाद से अब तक दुनिया की आठ प्रतिशत कृषि योग्य भूमि पर जीएम फसलों की खेती चल रही है। आमतौर पर किसानों को अपनी पिछली फसल के कुछ हिस्से को बचाकर रखना पड़ता है ताकि अगली फसल रोपी जा सके। लेकिन जीएम फसलों के लिए विशेष बीज चाहिए होते हैं। यह बीज महंगे होते हैं और आम किसान की पहुंच से दूर भी। इनके पुन: इस्तेमाल के लिए रॉयल्टी देनी होती है और किसान अपने खेत की पिछली फसल के बीज को दोबारा इस्तेमाल नहीं कर सकते। और साथ ही यह भी तर्क दिया जाता है कि बेहतर फसल और कीटनाशकों के कम इस्तेमाल के कारण किसान अधिक पूंजी बचा लेते हैं, इसलिए उन्हें अगली फसल के लिए बीजों का भुगतान करना चाहिए। यही कारण है कि सरकार ने भी जोर देकर जीएम फसल संबंधी कड़े नियामक लागू करने की बात कही है।

कहां, कितनी जीएम फसलें?

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दुनिया के कई देशों में जीएम फसलें इस्तेमाल में लाई जाती हैं। इनमें उत्तर और दक्षिण अमेरिका के अधिकांश देश शामिल हैं जहां सोयाबीन, मक्का, राई और चुकंदर आदि की जीएम फसलें उगाई और इस्तेमाल में लाई जाती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में पूरी दुनिया की आधी से अधिक जीएम फसलें इस्तेमाल की जाती हैं। इसके विपरीत यूरोप के केवल सात देशों में ही अभी तक जीएम फसलों के इस्तेमाल को कानूनी मान्यता प्रदान की गई है। एशिया में भी भारत और चीन समेत केवल तीन देशों में ही जीएम फसलों को इस्तेमाल में लाए जाने की शुरुआत हुई है, लेकिन इसके लिए कड़े नियामक हैं। अफ्रीका में भी केवल तीन देश ही हैं जिन्होंने जीएम फसलों के इस्तेमाल की इजाजत अभी तक दी है।

इन्हें भी देखें

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