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ढूला

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कालिब, साँचा, आड़ की दीवार, डाट लगाते समय उसको टेक तथा रूप देने के लिये बनाया गया लकड़ी, लोहे आदि का अस्थायी ढाँचा, जो डाट या छत पूरी तथा स्वावलंबी हो जानेपर हटा दिया जाता है, ढूला (Centring) कहलाता है।

डाट के पत्थर या ईंटें एक दूसरे पर अपना भार डालती हुई अंत में सारा भार किनारे के आलंबों पर पहुँचाती हैं और उस भार के फलस्वरूप उत्पन्न दबाव के कारण यथास्थान टिकी रहती हैं। कितु यह क्रिया तभी संपन्न हा सकती है, जब डाट पूरी हो जाय। अत: पूरी होने तक उन ईटों या पत्थरों को यथास्थान स्थिर बनाए रखने के लिये ढूला आवश्यक होता है। अनिवार्यत: ढूले की ऊपरी सतह डाट के तले का जवाब होती है।

छोटी डाटों की उठान यदि कम हो तो बहुघा एक ही लकड़ी के ऊपर उन्हें ढाल लेते हैं, अन्यथा दो तख्तों के ऊपर चपतियाँ लगाकर ढूला बना लेते हैं। ज्यादा ऊँची और बड़ी डाटों के ढूले कैंची के सिद्धांत पर बनाए जाते हैं। बहुधा एक निचली तान होती है और दुहरे तख्तों या धज्जियों को जोड़कर मजबूत कैंची का रूप दिया जाता है। इनके जोड़ साल-चूलवाले नहीं होते, बल्कि कीलां और काबलों से कसे रहते हैं, फिर भी वे इतने मजबूत बनाए जाते हैं कि अपने ऊपर पड़नेवाला सारा भार सह सकें। ऐसी दो, या आवश्यकतानुसार अधिक, कैंचियाँ उचित अंतर से रखकर ऊपर चपतियाँ लगा दी जाती हैं। गढ़ी ईंट की डाट के लिये ये चपतियाँ सटी हुई, अनगढ़ी ईट की डाट के लिये कुछ अंतर से और पत्थर की डाट के लिये और भी अधिक अंतर से लगाई जाती हैं।

सारा ढूला किनारों पर, और यदि आवश्यकता हुई तो बीच में भी, मजबूत बल्लियों या थूनियों पर टिका रहता है, जिनके ऊपर बंद होनेवाली पच्चड़े लगी रहती हैं। ढूला खोलने में सुविधा के लिये तो ये पच्चड़े जरूरी हैं ही, एक और दृष्टि से भी ये महत्वपूर्ण है: डाट पूरी हो जाने पर पच्चड़ों द्वारा ढूला थोड़ा सा ढीला कर दिया जाता है ताकि डाट की ईंटें या पत्थर परस्पर सटकर बैठ जायँ। इसे डाट का बैठना कहते हैं। कहीं कहीं पच्च्चड़ो के स्थान पर थूनियों के नीचे बालू भरी बोरियाँ चिपटी करके रख दी जाती है। ढूला ढीला करने के लिये थोड़ी बालू निकालने भर की आवश्यकता होती है। इस प्रकार बिना चोट या धक्का पहुँचाए ही काम हो जाता है।

छत की डाटों के ढूले छत की गर्डरों से ही लटका दिए जाते हैं। दीवारों पर कड़ियाँ या बल्लियाँ रखकर भी उनपर ढूला बनाया जाता है।

आजकल प्रबलित कंक्रीट या प्रबलित चिनाई की छतें बहुत बनाई जाती हैं। इनके ढालने के लिये भी ढूला अनिवार्य है। बहुधा लकड़ी का ढूला बनाया जाता है, जिसकी ऊपरी सतह रंदा करके साफ कर दी जाती है। बहुत अच्छे काम में लाहे की चादरें लगाई जाती हैं। ये लकड़ी से ज्यादा टिकाऊ होती हैं, सरलता से लगाई और निकाली जा सकती हैं और यदि एक जेसी बहुत सी छतें ढालनी हों तो ये सस्ती भी पड़ती हैं। मामूली काम में जहाँ लकड़ी या लोहा लगाने की सुविधा नहीं होती, मिट्टी का (कच्चा) ढूला ही बना लिया जाता है। लकड़ी के, या ईंट की सूखी चिनाई के खंभों के ऊपर कड़ियाँ रखकर ऊपर बाँस, फूस आदि से पाटकर मिट्टी बिछा देते हैं। इसपर मामूली सीमेंट वाले मसाले का पलस्तर करके ठीक सतह बना ली जाती है। सतह पर चूना पोत देने से बाद में छत का तला साफ करने में सुविधा रहती है। प्रबलित चिनाई की छत के लिये बहुधा ऐसा ही ढूला, और वह भी प्राय: बिना पलस्तर का, बनाया जाता है।

सपाट छतों के ढूले किनारों की अपेक्षा बीच में कुछ ऊँचे रखे जाते हैं, ताकि ढूले के, या छत के, बैठान लेने पर छत लटकी हुई न दिखाई दे। प्रति फुट पाट के लिये १/२ इंच की ऊँचाई प्रायः पर्याप्त मानी जाती है। धरनों के ढूलों में यह ऊँचाई इसकी आधी ही रखी जाती है।

चित्रदीर्घा

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सन्दर्भ

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इन्हें भी देखें

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