आर्द्रता
वायुमण्डल में विद्यमान अदृश्य जलवाष्प की मात्रा आर्द्रता कहलाती हैं। यह आर्द्रता पृथ्वी से वाष्पीकरण के विभिन्न रुपों द्वारा वायुमण्डल में पहुंचती हैं। आर्द्रता का जलवायु विज्ञान में सर्वाधिक महत्त्व होता हैं, क्योंकि इसी पर वर्षा, तथा वर्षण के विभिन्न रूप जैसे वायुमण्डलीय तूफान तथा विक्षोभ (चक्रवात आदि) आधारित होते हैं।
वर्षा, बादल, कुहरा, ओस, ओला, पाला आदि से ज्ञात होता है कि पृथ्वी को घेरे हुए वायुमंडल में जलवाष्प सदा न्यूनाधिक मात्रा में विद्यमान रहता है। प्रति घन सेंटीमीटर हवा में जितना मिलीग्राम जलवाष्प विद्यमान है, उसका मान हम रासायनिक आर्द्रतामापी से निकालते है, किंतु अधिकतर वाष्प की मात्रा को वाष्पदाव द्वारा व्यक्त किया जाता है। वायु-दाब-मापी से जब हम वायुदाब ज्ञात करते हैं तब उसी में जलवाष्प का भी दाब सम्मिलित रहता है।
निरपेक्ष आर्द्रता
[संपादित करें]वायु के निश्चित आयतन पर उसमें उपस्थित कुल नमी की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहतें हैं। यह आर्द्रता वायु के निश्चित आयतन पर जलवाष्प के भार को प्रदर्शित करती हैं। इसे 'घनफुट प्रति ग्रेन' में तथा 'घन सेण्टीमीटर प्रति ग्राम' में प्रदर्शित करते हैं।
आपेक्षिक आर्द्रता
[संपादित करें]वायु के एक निश्चित आयतन में किसी ताप पर जितना जलवाष्प विद्यमान होता है और उतनी ही वायु को उसी ताप पर संतृप्त करने के लिए जितने जलवाष्प की आवश्यकता होती है, इन दोनों राशियों के अनुपात को आपेक्षिक आर्द्रता (Relative humidity या RH) कहते है: अर्थात् T ताप पर आपेक्षिक आर्द्रता एक घन सें.मी. वायु में T सेंटीग्रेड पर प्रस्तुत जलवाष्प¸ एक घन सेंटीमीटर वायु में T सेंटीग्रेड पर संतृप्त जल वाष्प। बाऍल के अनुसार यदि आयतन स्थायी हो तो किसी गैस की मात्रा उसी के दाब की अनुपाती होती है। अत:
आपेक्षिक आर्द्रता = प्रस्तुत जलावाष्प की दाब / उसी ताप पर जलवाष्प की संतृप्त दाब
जलवाष्प की दाब, ओसांक ज्ञात करने पर, रेनो की सारणी से निकाला जाता है।
आर्द्रता से लाभ
[संपादित करें]वायु की नमी से बड़ा लाभ होता है। स्वास्थ्य के लिए वायु में कुछ अंश जलवाष्प का होना परम आवश्यक है। हवा की नमी से पेड़ पौधे अपनी पत्तियों द्वारा जल प्राप्त करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में नमी की कमी से वनस्पतियाँ कुम्हला जाती हैं। हवा में नमी अधिक रहने से हमें प्यास कम लगती है, क्योंकि शरीर के अनगिनत छिद्रों से तथा श्वास लेते समय जलवाष्प भीतर जाता है और जल की आवश्यकता की पूर्ति बहुत अंश में हो जाती है। शुष्क हवा में प्यास अधिक लगती हैं बाहर की शुष्कता के कारण त्वचा के छिद्रों से शरीर के भीतरी जल का वाष्पन अधिक होता है, जिससे भीतरी जल की मात्रा घट जाती है। गरमी के दिनों में शुष्कता अधिक होती है और जाड़े में कम, यद्यपि आपेक्षिक आर्द्रता जाड़े में कम और गरमी में अधिक पाई जाती है। वाष्पन हवा के ताप पर भी निर्भर रहता है।
रुई के उद्योग धंधों के लिए हवा में नमी का होना परम लाभकर होता है। शुष्क हवा में धागे टूट जाते हैं। अच्छे कारखानों में वायु की आर्द्रता कृत्रिम उपायों से सदा अनुकूल मान पर रखी जाती है। हवा की नमी से बहुत से पदार्थो की भीतरी रचना पर निर्भर है। झिल्लीदार पदार्थ नमी पाकर फैल जाते हैं ओर सूखने पर सिकुड़ जाते हैं। रेशेदार पदार्थ नमी खाकर लंबाई की अपेक्षा मोटाई में अधिक बढ़ते हैं। इसी कारण रस्सियां और धागे भिगो देने पर छोटे हो जाते हैं। चरखे की डोरी ढीली हो जाने पर भिगोकर कड़ी की जाती है। नया कपड़ा पानी में भिगोकर सुखा देने के बाद सिकुड़ जाता है, किंतु रूखा बाल नमी पाकर बड़ा हो जाता है बाल की लंबाई में १०० प्रतिशत आर्द्रता बढ़ने पर सूखी अवस्था की अपेक्षा २.५ प्रतिशत वृद्धि होती है। बाल के भीतर प्रोटीन के अणुओं के बीच जल के अणुओं की तह बन जाती है, जिसकी मोटाई नमी के साथ बढ़ती जाती है। इन तहों के प्रसार से पूरे बाल की लंबाई बढ़ जाती है।
आर्द्रतायुक्त वायुमंडल पृथ्वी के ताप को बहुत कुछ सुरक्षित रखता है। वायुमंडल की गैसें सूर्य की रश्मियों में से अपनी अनुवादी रश्मियों को चुनकर सोख लेती हैं। जलवाष्प द्वारा शोषण अन्य गैसों के शोषणों के योग की अपेक्षा लगभग दूना होता है। ताप के घटने पर वहीं जलवाष्प धुआँ, धूल तथा गैसों के अणुओं पर संघनित होता है ओर कुहरे, बादल आदि की रचना होती है। ऐसे संघनित जलवाष्प द्वारा रश्मियों का शोषण बहुत अधिक होता है। जलवाष्प १० म्यू तरंगदैर्घ्य की रश्मियों के लिए पारदर्शक होता है, किंतु ०.१ मिलीमीटर मोटी जलवाष्प की तह इनके केवल १/१०० भाग को पार होने देती है [१म्यू=१ माइक्रॉन=१०,०००A. (एंगस्ट्राम) और १A.=१०E—८ सेंटीमीटर]। अत: बादल ओर कुहरा, जिनकी मोटाई चार छह मीटर होती है, काले पिंड के समान पूर्ण शोषक तथा विकीर्णक होते हैं, सूर्य के पृष्ठ ताप ६०००° सें. होता है। वीन के द्वितीय नियम के अनुसार अन्य रश्मियों के साथ ०.५ म्यू तरंगदैर्घ्यवाली रश्मियां उच्चतम तीव्रता से विकीर्ण होती हैं। वीन का नियम है :
- lm=b/T
जहाँ तप्त पिंड से विकीर्ण रश्मि का तरंगदैर्घ्य lm है, स्थिरांक b = २९४० और T परमताप है।
यदि वायुमंडल में बादल न हो तो सभी छोटी रश्मियाँ पृथ्वी पर चली आती हैं। यदि बादल अथवा घना कुहरा रहता हे तो ८० प्रतिशत भाग परावर्तित होकर ऊपर चला जाता है, केवल २० प्रतिशत भाग पृथ्वी पर पहूँचता है। इन रश्मियों से धरातल का ताप बढ़कर २०° सें. से ३०° सें., अर्थात् लगभग ३००° परमताप हो जाता है। वीन के पूर्वोक्त नियम के अनुसार १० म्यू के आसपास की रश्मियाँ अधिक तीव्रता से विकीर्ण होती हैं। इन रश्मियों को बादल और कुहरा परावर्तित कर ऊपर नहीं जाने देते और इस प्राकृतिक विधान से धरातल तथा वायुमंडल का ताप घटने नहीं पाता। कंबलरूपी वायुमंडल काचगृह के समान ताप को सुरक्षित रखता है। यही कारण है कि जाड़े कि दिनों में कुहरा रहने पर ठंडक अधिक नहीं लगती। बदली होने पर गर्मी बढ़ जाती है तथा निर्मल आकाश रहने पर ठंडक बढ़ जाती है।