समुद्र

संज्ञा

पु.

अनुवाद

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

समुद्र संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. वह जलराशि जो पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है और जो इस पृथ्वीतल के प्रायः तीन चतुर्थांश में व्याप्त है । सागर । अंबुधि । विशेष—यद्यपि समस्त संसार एक ही समुद्र से घिरा हुआ है, तथापि सुभीता के लिये उसके पाँच बड़े भाग कर लिए गए हैं; और इनमें से प्रत्येक भाग सागर या महासागर कहलाता है । पहला भाग जो अमेरिका से यूरोप और अफ्रिका के मध्य तक विस्तृत है, एटलांटिक समुद्र (सागर या महासागर भी) कहलाता है । दूसरा भाग जो अमेरिका और एशिया के मध्य में है, पैसिफिक या प्रशांत समुद्र कहलाता है । तीसरा भाग जो अफ्रिका से भारत और आस्ट्रेलिया तक है, इंडियन या भारतीय समुद्र हिंद महासागर कहलाता है । चौथा समुद्र जो एशिया, यूरोप और अमेरिका, उत्तर तथा उत्तरी ध्रुव के चारो ओर है, आर्कटिक या उत्तरी समुद्र कहलाता है और पाँचवा भाग जो दक्षिणी ध्रुव के चारो और है, एंटार्कटिक या दक्षिणी समुद्र कहलाता है । परंतु आजकल लोग प्रायः उत्तरी और दक्षिणी ये दो ही समुद्र मानते हैं, क्योंकि शेष तीनों दक्षिणी समुद्र से बिलकुल मिले हुए है; दक्षिण की ओर उनकी कोई सीमा नहीं है । समुद्र के जो छोटे छोटे टुकड़े स्थल में अंदर की ओर चले जाते हैं, वे खाड़ी कहलाते हैं । जैसे,—बंगाल की खाड़ी । समुद्र की कम से कम गहराई प्रायः बारह हजार फुट और अधिक से अधिक गहराई प्रायः तीस हजार फुट तक है । समुद्र में जो लहरें उठा करती हैं, उनका स्थल की ऋतृओं आदि पर बहुत कुछ प्रभाव पड़ता है । भिन्न भिन्न अक्षांशों में समुद्र के ऊपरी जल का तापमान भी भिन्न होता है । कहीं तो वह ठंढा रहता है, कहीं कुछ गरम और कहीं बहुत गरम । ध्रुवों के आसपास उसका जल बहुत ठंढा और प्रायः बरफ के रूप में जमा हुआ रहता है । परंतु प्रायः सभी स्थानों में गहराई की ओर जाने पर अधिकाधिक ठंढा पानी मिलता है । गुण आदि की दृष्टि से समुद्र के सभी स्थानों का जल बिलकुल एक सा और समान रूप से खारा होता है । समुद्र के जल में सब मिलाकर उन्तीस तरह के भिन्न भिन्न तत्व हैं, जिनमें क्षार या नमक प्रधान है । समुद्र के जल से बहुत अधिक नमक निकाला जा सकता है, परंतु कार्यतः अपेक्षाकृत बहुत ही कम निकाला जाता है । चंद्रमा के घटने बढ़ने का समुद्र के जल पर विशेष प्रभाव पड़ता है और उसी के कारण ज्वार भाटा आता है । हमारे यहाँ पुराणों में समुद्र की उत्पत्ति के संबंध में अनेक प्रकार की कथाएँ दी गई हैं और कहा गया है कि सब प्रकार के रत्न समुद्र से ही निकलते हैं; इसी लिये उसे 'रत्नाकर' कहते हैं । पर्या॰—समुद्र । अब्धि । अकूपार । पारावार । सरित्पति । उदन्वान् । उदधि । सिंधु । सरस्वान् । सागर । अर्णव । रत्नाकर । जलनिधि । नदीकांत । नदीश । मकरालय । नीरधि । नीरनिधि । अंबुधि । पाथोधि । निधि । इंदुजनक तिमिकोष । क्षीराब्धि । मितद्रु । वाहिनीपति । जलधि । गंगाधर । तोयनिधि । दारद । तिमि । महाशय । वारिराशि । शैलशिविर । महीप्राचीर । कंपति । पयोधि । नित्य । आदि आदि ।

२. किसी विषय या गुण आदि का बहुत बड़ा आगार ।

३. बहुत बड़ी संख्या का वाचक शब्द (को॰) ।

४. शिव का एक नाम (को॰) ।

५. चार की संख्या (को॰) ।

६. नक्षत्रों और ग्रहों की एक विशेष प्रकार स्थिति (को॰) ।

७. एक प्राचीन जाति का नाम ।

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