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स्वर (Voice) या कंठध्वनि की उत्पत्ति उसी प्रकार के कंपनों से होती है जिस प्रकार वाद्ययंत्र से ध्वनि की उत्पत्ति होती है। अत: स्वरयंत्र और वाद्ययंत्र की रचना में भी कुछ समानता है। वायु के वेग से बजनेवाले वाद्ययंत्र के समकक्ष मनुष्य तथा अन्य स्तनधारी प्राणियों में निम्नलिखित अंग होते हैं :

1. कंपक (Vibrators) इसमें स्वर रज्जुएँ (Vocal cords) भी सम्मिलित हैं।

2. अनुनादक अवयव (resonators) इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं

क. नासा ग्रसनी (nasopharynx), ख. ग्रसनी (pharynx),
ग. मुख (mouth), घ. स्वरयंत्र (larynx),
च. श्वासनली और श्वसनी (trachea and bronchus)
छ. फुफ्फुस (lungs), ज. वक्षगुहा (thoracic cavity)।

3. स्पष्ट उच्चारक (articulators) अवयव - इसमें निम्नलिखित अंग सम्मिलित हैं :

क. जिह्वा (tongue), ख. दाँत (teeth), ग. ओठ (lips),
घ. कोमल तालु (soft palate), च. कठोर तालु (hard palate)।

स्वर की उत्पत्ति में उपर्युक्त अव्यव निम्नलिखित प्रकार से कार्य करते हैं : फुफ्फुस जब उच्छ्वास की अवस्था में संकुचित होता है, तब उच्छ्वसित वायु वायुनलिका से होती हुई स्वरयंत्र तक पहुंचती है, जहाँ उसके प्रभाव से स्वरयंत्र में स्थिर स्वररज्जुएँ कंपित होने लगती हैं, जिसके फलस्वरूप स्वर की उत्पत्ति होती है। ठीक इसी समय अनुनादक अर्थात् स्वरयंत्र का ऊपरी भाग, ग्रसनी, मुख तथा नासा अपनी अपनी क्रियाओं द्वारा स्वर में विशेषता तथा मृदुता उत्पन्न करते हैं। इसके उपरांत उक्त स्वर का शब्द उच्चारण के रूपांतर उच्चारक अर्थात् कोमल, कठोर तालु, जिह्वा, दाँत तथा ओंठ करते हैं। इन्हीं सब के सहयोग से स्पष्ट शुद्ध स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वरयंत्र

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यह पेशी तथा स्नायुजाल से बँधी उपास्थियों (cartilages) के जुड़ने से बनी रचना है। यह एक ऊपर नीचे छिद्रवाला मुकुटाकार रचना है जो गले के सम्मुख भाग में श्वासनली के शिखर पर रहता है और जिसके द्वारा श्वासवायु का प्रवेश होता है तथा कंठ से स्वर निकलता है। यह पेशियों से घिरा रहता है तथा त्वचा के नीचे अनुभव भी किया जा सकता है। यह ऊपर कंठिकास्थि और नीचे श्वासनली से मिला है। स्वरयंत्र नौ उपास्थियों से बना है जिनमें तीन एकल बड़ी उपस्थियाँ और तीन युग्म उपस्थियाँ होती हैं।

अवटु (thyroid) उपास्थि ==

यह स्वरयंत्र की प्रधान उपास्थि है, जिसका आकार फैले हुए युग्म पंख के समान होता है। इसका बाहर से उभार युवावस्था में, विशेषकर पुरुषों में दिखाई देता है। इसके दोनों पंख मध्यरेखा के दोनों ओर हैं और सम्मुख में कोण बनाकर पीछे की ओर फैले हुए हैं। इसके ऊपर नीचे दो शृंग (horns) हैं। ऊपर के शृंगों में कंठिकास्थि के दोनों पार्श्व जुड़े हैं तथा नीचे के दोनों शृंगवलय उपास्थि से मिलते हैं। दोनों पंखों के संधिकोण के ऊर्ध्व भाग में कंठच्छद (epiglottis) का मूलस्थान है। इन सब रचनाओं के चारों तरफ छोटी बड़ी मांसपेशियाँ आच्छादित रहती हैं।

वलथ (Cricoid) उपास्थि

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यह स्वरयंत्र के नीचे की उपास्थि है जिसका आकार अँगूठी के समान होता है। इसके दो भाग होते हैं जिनमें सम्मुख का भाग पतला और गोल है और पीछे का भाग स्थूल और चौड़ा है। सम्मुख भाग के ऊपर की ओर अवटु उपास्थि का निम्नभाग और नीचे की ओर श्वासनली का ऊर्ध्वभाग श्लेष्म झिल्ली द्वारा जुड़ा रहता है। पश्चिम भाग के पीछे मध्य रेखा में अन्ननली का सम्मुख भाग है। इसके दोनों ओर मांसपेशियाँ आच्छादित हैं।

इसी प्रकार स्वरयंत्र की अन्य प्रमुख उपास्थियों में कुंभकार (arytenoid) उपास्थि, कीलक (cuneiform) उपास्थि तथा शृंगी (Corniculate) हैं, जो चारों तरफ से मांसपेशियों से बँधी रहती हैं तथा स्वर की उत्पत्ति में सहायक होती हैं।

 
स्वर रज्जुओं का नामांकित चित्र

ये संख्या में चार होती हैं जो स्वरयंत्र के भीतर सामने से पीछे की ओर फैली रहती हैं। यह एक रेशेदार रचना है जिसमें अनेक स्थितिस्थापक रेशे भी होते हैं। देखने में उजली तथा चमकीली मालूम होती है। इसमें ऊपर की दोनों तंत्रियाँ गौण तथा नीचे की मुख्य कहलाती हैं। इनके बीच में त्रिकोण अवकाश होता है जिसको कंठद्वार (glottis) कहते हैं। इन्हीं रज्जुओं के खुलने और बंद होने से नाना प्रकार के विचित्र स्वरों की उत्पत्ति होती है।

स्वर की उत्पत्ति में स्वररज्जुओं की गतियाँ (movements)

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श्वसन काल में रज्जुद्वार खुला रहता है और चौड़ा तथा त्रिकोणकार होता है। साँस लेने में यह कुछ अधिक चौड़ा तथा श्वास छोड़ने में कुछ संकीर्ण हो जाता है। बोलते समय रज्जुएँ आकर्षित होकर परस्पर सन्निकट आ जाती हैं और उनका द्वार अत्यंत संकीर्ण हो जाता है। जितना ही स्वर उच्च होता है, उतना ही रज्जुओं में आकर्षण अधिक होता है और द्वारा उतना ही संकीर्ण हो जाता है।

स्वरयंत्र की वृद्धि के साथ साथ स्वररज्जुओं की लंबाई बढ़ती है जिससे युवावस्था में स्वर भारी हो जाता है। स्वररज्जुएँ स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों में अधिक लंबी होती हैं।

स्वर की उत्पत्ति

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उच्छ्वसित वायु के वेग से जब स्वर रज्जुओं का कंपन होता है तब स्वर की उत्पत्ति होती है। यहाँ स्वर एक ही प्रकार का उत्पन्न होता है किंतु आगे चलकर तालु, जिह्वा, दंत और ओष्ठ आदि अवयवों के संपर्क से उसमें परिवर्तन आ जाता है। स्वररज्जुओं के कंपन से उत्पन्न स्वर का स्वरूप निम्लिखित तीन बातों पर निर्भर करता है :

1. प्रबलता (loudness) - यह कंपन तरंगों की उच्चता के अनुसार होता है।

2. तारत्व (Pitch) - यह कंपन तरंगों की संख्या के अनुसार होता है।

3. गुणता (Quality) - यह गुंजनशील स्थानों के विस्तार के अनुसार बदलता रहता है और कंपन तरंगों के स्वरूप पर निर्भर होता है।

बाहरी कड़ियाँ

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